Negative Attitude

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Thursday, May 28, 2020

मध्यमवर्गीय जनसँख्या और घातक लॉकडाउन

हमारी व्यवस्था वैसे तो मध्यमवर्गीय जनसँख्या के प्रति अनुत्तरदायी तो रहती ही है लेकिन इस कोरोना महामारी में हमारी सरकार/व्यवस्था ने मध्यमवर्गीय जनसँख्या से इस क़दर मुँह फ़ेर लिया मानों यह एक श्रापित समूह हो औऱ जिसके जीविकोपार्जन के लिए व्यवस्थित हद तय करने की कोई आवश्यकता ही ना हो. कोरोना महामारी के अनिश्चितकालीन लॉकडाउन ने अचानक से मध्यमवर्गीय जनसँख्या की कमर तोड़ दी है और इस समूह के आधे से ज्यादा आबादी आज सामाजिक आर्थिक वर्गीकरण के नजरिये से कमजोर और असुरक्षित श्रेणी में आ गयी हैं. इस मध्यमवर्गीय जनसँख्या के लिए भविष्य दृश्यता के रूप अगर कुछ है,वो है कोरोना संक्रमण के आंकड़ों में दिन ब दिन रिकॉर्डतोड़ वृद्धि और इसके एकमेव समाधान के तौर पर सरकार द्वारा रंगारंग लॉकडाउन के कई और चरणों की कटिवद्धता।


मध्यमवर्गीय जनसँख्या को लॉकडाउन प्रथम चरण के दूसरे हफ़्ते से ही उनके कंपनियों से वेतन कटौती या छंटनी के फ़रमान मिलने शुरू हो गए थे और आज अगर इसका सत्यता से आंकलन करेंगे तो पाएंगे की वेतन कटौती या छंटनी जैसी परिस्थिति कमोवेश भारत के लगभग सभी व्यावसायिक संस्थानों एवं मध्यमवर्गीय परिवारों में है.हक़ीक़त में लॉक डाउन के विस्तारों साथ करोड़ो मध्यमवर्गीय परिवार की स्थिति यह हो गई है कि न तो वह किसी से मांग सकता है और न कोई उसे देने का काम कर रहा है,लॉक डाउन में नई नौकरी ढूंढे भी तो कैसे। मध्यम वर्ग में कई ऐसे परिवार हैं जिनके सामने महामारी के भय से ज्यादा भूखमरी की स्थिति का डर है लेकिन इस समूह के लिए सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में इनके लिए आर्थिक सहायता के तौर पर क़र्ज़ के अतिरिक्त कुछ नही है.20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज से देश की अर्थव्यवस्था में तरलता क़ायम रखने की धारा में यह प्रयागराज संगम के सरस्वती के समान विलुप्त है.भारत की वित्तीय व्यवस्था क़र्ज़,क़र्ज़ चुकाने की औकात को देखकर देती है.जब आय की निरंतरता ही नहीं रहेगी,नौकरी ही नहीं रहेगी तो क़र्ज़ देगा कौन ? मतलब 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज प्रस्तुत करने की योजना में यह माना गया है की लॉक डाउन चाहे जितना भी लंबा चले, देश में कोई बेरोज़गार नहीं होगा,किसी की नौकरी नहीं जायेगी! इसको क्या माना जाए - मध्यमवर्गीय जनसँख्या के प्रति सहानुभूति या छलावा? हमारे माननीय एवं सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री टीवी पर यह कहते नहीं थकते की यह मध्यमवर्गीय समाज ईमानदारी से कर चुकाता है -इसको क्या माना जाए- प्रशंसा या अस्पष्टता का राजकीय विपणन?


आम जनता के लिए लॉक डाउन एक आपदा हैं जो क़ानूनन उसके ऊपर आनन फानन में थोपा गया था.भारत की अधिकतर निम्नवर्गीय या अशिक्षित जनसँख्या को लॉक डाउन के मायने एवं इससे जुड़े वन्दिशों का इल्म लॉक डाउन लगने के बाद हुआ है.लॉकडाउन के मायने एवं इससे जुड़े वन्दिशों के बारे में शिक्षित न करने के कारण से गरीबों,श्रमिकों के बीच अराजकता/बेचैनी की जो स्थिति उत्पन्न हुई उससे हज़ारो ग़रीब,श्रमिकों की जान तो गई ही साथ साथ लॉक डाउन का जो मुख़्य उद्देश्य कोरोना संक्रमण के चक्र को तोडना था,वो भी स्पष्ट रूप में विफ़ल हुआ और इसके विपरीत तीतर बितर होकर भारत के कई अनछुए भूभाग तक पहुँच गया.विश्व स्तर पर कम मृत्यु दर होने पर भले ही हम इतरा रहे हो लेकिन लॉकडाउन के विस्तार की मज़बूरी कुछ और ही कहानी वयां करती- ये वो परिस्थिति वयां करती है जिसमे राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना प्रबंधन का ध्वस्त होना भी है और जिसे हमे रिकवरी रेट और मोर्टेलिटी रेट से यह बताना चाहते है की स्थितिः नियंत्रण में है परन्तु लॉक डाउन के विस्तार की कीमत पर?


भारत के समकालीन जिन जिन देशों ने लॉक डाउन किया था वो अब लॉकडाउन से बाहर निकलने लगे और हम है की श्रमिकों के पलायन को सुलझाने के वजाये 60 दिनों के लॉक डाउन के बाद आज सुप्रीम कोर्ट में अपना मुँह मियाँ मिठु कर रहे है.हम चाँद की बात करते है लेक़िन ज़मीन पर नियंत्रण देखिये,चाँद परियोजना मिथ्या प्रतीत होगा।


अभी भी करोड़ो की तादाद में ग़रीबो का पलायन शेष है और ऐसे में अगर लॉकडाउन का और विस्तार हुआ तो सोचिये मध्यमवर्गीय समाज की बदहाली कहाँ जाकर रुकेगी? मध्यमवर्गीय जनसँख्या कोई व्यवस्था या पद्धति नहीं है जिसे राजकोषीय उपायों से संभाला जा सकता है,इसके लिए सहायता रूपी वृहत सामाजिक निवेश की आवश्यकता है अन्यथा कुछ समय पश्चात यह आँकलन करना मुश्किल हो जाएगा की कोरोना घातक था या कोरोना के लिए किये गए लॉकडाउन!!

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