Negative Attitude

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Sunday, September 13, 2020

"बिहार विधानसभा चुनाव-2020"

बिहार विधानसभा चुनाव को सुशांत,रिया,कंगना,जाति,नेहरु की विफलता,पटेल की लौह छवि,हिंदु एवं मुसलमान आदि से दूर रखें अन्यथा बिहार एवं बिहारियों को फिर से बिहारी भावना में डुबाकर उल्लू बनाया जाएगा...सुशांत,रिया एवं कंगना को न्याय दिलाने के लिए न्यायपालिका है...सुशांत,रिया एवं कंगना आर्थिक तौर पर समृद्ध भी है तभी तो भारत से लेकर लेकर अमेरिका तक कैंपेन चल रहा है..


ग्रामीण प्रधान राज्य बिहार को, विकास के नाम पर बिहार का बकबास ना करे...क्या बिहारियों को अनंत काल के लिए प्रवासी बनकर ही अपने परिवार का भरण पोषण करना है..??


स्वर्गीय सुशांत के मामले में दोषियों को पता लगाने के लिए महामारी के तमाम वंदिशो के वावजूद स्थानीय पुलिस, मीडिया आदि से लेकर उच्च/सर्वोच्च  न्यायालय तक मुस्तैदी से कार्यरत है....बिहारियों, दिग्भ्रमित ना हो..!!!


बिहारियों, आपको आंशु बहाना ही है तो आप इस बात के लिए आंशु बहाये या प्रलाप करे की बिहार अभी भी भारत सरकार के विकसित होने के सभी मानकों पर देश का सबसे पिछड़ा राज्य है...आप इस बात के लिए आंशु बहाये या प्रलाप करे की असंख्य प्रवासी बिहारी मजदुर तालाबंदी के दौरान रोड पर मर गए...आप इस बात के लिए आंशु बहाये या प्रलाप करे की बिहार में कोरोना महामारी से जितनी भी मौते हुईं उनमे से लगभग 75% मौते समुचित इलाज ना मिल पाने से हुई है...आप इस बात के लिए आंशु बहाये या प्रलाप करे की भ्रस्टाचार के नाम पर एकलौता सजायाफ्ता नेता बिहार से ही क्यूँ है?? 


राजनैतिक "ब्रांडिंग" के षड़यंत्र में लालू यादव को भ्रस्टाचार का दोषी करार दिए जाने से राजद की बर्बादी से ज्यादा राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की राजनीति की दीर्घकालीन छवि और बिहार की राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता नष्ट हुई है.परिणाम आपके समक्ष है-आईएएस/आईपीएस उत्पादक कहे जाने वाले राज्य में आज क्षेत्रीय लीडरशिप के नाम पर सिर्फ और सिर्फ श्री नीतीश कुमार है..?? लालू यादव को नष्ट करने के चक्कर में बिहार की राजनीति का सेकंड लाइन आज निःसंतान हो गया है.लालू यादव की क्षेत्रीय राजनीति भले ही सभी जनसमूहों के लिए कल्याणकारी थी या ना थी ये निस्संदेह गंभीर प्रश्न रहा है परन्तु ये बिहार के राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के चेक और बैलेंस लिए एक महत्वपूर्ण,शक्तिशाली एवं प्रभावशाली स्तंभ जरूर थे. आप लालु यादव का संसद में दी गयी सभी आधिकारिक भाषणों को सुने और बिहार की राष्ट्रीय राजनीति पर इनकी नजरिये का इनके "जीते-जी""psychological autopsy" करें तो आप समझ पायेंगें की बिहार की राष्ट्रीय राजनीति पर चेक और बैलेंस लिए आज की राजनीति में लालु यादव का अनुपलब्ध होना एक शुन्य जैसी स्थिति या निर्वात सा है या नहीं? 


लालु यादव भ्रस्टाचार के दोषी होंगे लेकिन उनकी राजनैतिक विचारधारा में कोई भ्रष्टाचार,कोई घोटाला नहीं था.वास्तव में लालु यादव इकलौते ऐसे सख्सियत होंगे जिसने राजनैतिक विचारधारा से समझौता कर कभी लाभ-हानि का आशियाना बदला हो! देश के तमाम क्षेत्रीय सियासी संस्थाओं के प्रबंध निदेशक को जानने की कोशिश करें तो आपको पता चलेगा की लालु के अलावा लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने कभी ना कभी अपनी राजनैतिक विचारधाराओं के साथ समझौता कर लाभ-हानि का आशियाना बदला है! लालु यादव का सजायाफ़्ता सिद्ध किया जाना यह उद्घोष करता है की लोकतान्त्रिक राजनीति में "अस्वस्थ प्रतिद्वन्द्विता" की संस्कृति की पैठ कितनी मज़बूत हो चुकी है. लालु यादव का सजायाफ़्ता होने से पहले ऐसा लगता था की राजनीति में भ्रस्टाचार/घोटाला भरा हुआ है लेकिन लालु यादव के सजायाफ़्ता होने के बाद ऐसा लगने लगा है भारतीय राजनीति में सतयुग आ गया है तभी तो 2019 लोकसभा में निर्वाचित सभी सांसदों में 43% सांसदों पर आपराधिक मामले है जो आज़ाद भारत के लोकतंत्र की ऐतिहासिक उपलब्धि भी है. पिछले कई दशकों से भारत की साक्षरता दर में जिस तरह से इज़ाफ़ा हुआ है ठीक उसी तरह से आपराधिक आरोपों वाले जनप्रतिनिधियों की भी वृद्धि हुई है..?? पता नहीं देश के बढ़ती साक्षरता का प्रभाव अभी तक भारतीय लोकतंत्र की पारिस्थितिकी तंत्र पर क्यों नहीं पड़ी है? शायद साक्षरता के कुछ अवगुण भी हो या किसी ख़ास क्षेत्र में शिक्षा का प्रभाव कम  होता हो और जिसे शिक्षाविद अब तक पहचान नहीं पाये है.....यह शोध का विषय होना चाहिए??


पिछले १० वर्षो में बिहार से बाहर जाकर काम करने वालों की संख्या अवश्य कम हुई है लेकिंग ये बिहार की विकास गाथा नहीं है वल्कि इसका असली हीरो भारत सरकार की मनरेगा जैसी प्रभावशाली योजनाएं है. सिर्फ बिजली से विकास होना होता तो उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति बिहार से सदैव बेहतर रही है लेकिन उसकी स्थिति देख लीजिये- "प्रति व्यक्ति आय" के मानकों पर नीचे से दूसरा नंबर पर यानी पिछड़ापन में बिहार के ठीक बाद..!!


बिहार में विकास, सिर्फ विकास की "राजनैतिक ब्रांडिंग" से नहीं होगी, बिहारियों को देखना होगा की उन्हें सिर्फ टीवी चैनलों,चुनावी पोस्टरों या पटकथा वाली जन संवाद या मन की बात में बिहार के विकास का विज्ञापन चाहिए या वास्तविक में बिहार का विकास चाहिए। ऐसा विकास जो वर्चुअल दुनिया का विकल्प नेताओं के साथ साथ आपके जीविकोपार्जन के लिए भी सुनिश्चित कर सके!


बिहार में "टीवी वाले घरों" की संख्या देश की सभी बड़े राज्यों के तुलना में कम है और इसीलिए देश के सभी कॉर्पोरेट्स बिहार को ''मीडिया डार्क'' स्टेट कहते है  लेकिन आज बिहार की राजनैतिक पार्टियों से पास देश की सभी पार्टियों की तुलना में "टीवी" इतना ज्यादा मात्रा में है की वो आने वाले चुनावी दिनों में हर नुक्कड़ पर टीवी लगा वर्चुअल रैली करेंगे। विकास तो हुआ ही है लेकिन बिहार राज्य का नहीं,बिहार की सियासी संस्थाओं का हुआ है.


बिहारियों, आप "2020 विधान सभा" चुनाव में राजनैतिक विचारधारा और चुनावी घोषणाओं को त्याग "भारतीय संविधान" को देखिये और परखिये की कौन आपको Fast -Track मोड में संविधानप्रदत अधिकारों को दिला विकसित बना पायेगा। आप ऐसे बिहार का संकल्प ले की बिहार ही आपका जन्मभुमि ,कर्मभूमी एवं मोक्षभूमि हो.आप प्रवासी कहलाकर हाईवे पर तालाबंदी जैसी परिस्थिति में कीड़े-मकोड़े की तरह न मरें,आपको प्रवासी के नाम पर महानगरों में ट्रेन से धकेल कर मार ना दिया जाये। बिहार के सफलतम अभिनेता शेखर सुमन को कभी भी बिहारियों की ये आवाज सुनाई नहीं दी,ना ही पीड़ा हुई जितना की वो स्वर्गीय सुशांत की मौत से व्यथित हुए है..?? 


बिहार की राजनीति में आज एक और अपूरणीय क्षति हुई है...बिहार के प्रभावशाली नेता एवं यूपीए सरकार में मंत्री के तौर पर मनरेगा को गाँव गाँव पहुंचाने वाले श्री रघुवंश प्रसाद सिंह जी को भावभीनी श्रद्धांजलि🙏! आप मनरेगा के कार्यो के लिए सदैव याद रहेंगे!


जय बिहार!!


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Saturday, June 6, 2020

हम "सामाजिक" होते हुए भी "शारीरिक दूरी" से कोरोना से लड़ सकते हैं...

जैसे जैसे कोरोनोवायरस संकट प्रत्येक गुजरते दिन के साथ भयंकर होता रहा है, हर किसी के दिमाग में एक ही बात चल रही है की "यह सब कब समाप्त होगा?" सही जवाब है- किसी के पास कोई सुराग नहीं है। लेकिन पता नहीं दुनिया के तमाम प्रबुद्धजन यह बताने से क्यों हिचक रहे कि यह दुनिया का अंत नहीं है।

संसार की प्रत्येक प्रणाली जो मानव के सहज अस्तित्व के लिए जिम्मेदार है, "पोस्ट कोविड", "न्यू नॉर्मल" और "सोशल डिस्टेंसिंग" आदि जैसे कथनों को बेचने में काफी व्यस्त हैं ,मानो कल पूरी तरह से कोविड मुक्त नई दुनिया होगी? सत्य तो यह है कि हमें अभी लंबे समय तक कोरोना के साथ रहने की आदत डालनी होगी।

इन दिनों,सभी सोशल/मास मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर वेबिनार और बहुत सारे छोटे डेटा एवं अंतर्दृष्टि की होड़ लगी हुई है जो मुख्य रूप से मंदी, कम उत्पादन, बिक्री और खपत के "डर" के साथ साथ कोरोना काल के बाद मानव शरीर में नए तंत्रिका तंत्र होने को भी प्रोत्साहित कर रही है.


इसमें तरह के अंतर्दृष्टि में नया क्या है? यह स्पष्ट है कि जब जनता को लंबी अवधि के लिए लॉकडाउन का एकमात्र विकल्प दिया जाता है,तो उपभोक्तावाद के सभी स्तरों पर "उपभोग/खपत" तो बंद हो ही जाएगी।


यहाँ सवाल यह है कि क्या हमें ऐसी अंतर्दृष्टि / धारणाओं पर विश्वास करने की ज़रूरत है जो "भय" को प्रोत्साहित करती हैं? भारत में "CoVid प्रबंधन" के लिए अब तक के सभी शोध और सांख्यिकीय मॉडलिंग निराशाजनक रहे हैं? और यह हमें एक मजबूत संदेश देता है कि जब पूरा पारिस्थितिकी तंत्र अशांत अवस्था से गुजर रहा हो,तो कोई भी शोध या धारणा केवल भ्रमित करने का कार्य ही करेगी।

भारत सरकार की "CoVid19 प्रबंधन टीम" कोरोना वायरस की तरह ही अनूठा है और इन्होने अंततः यह पाया है कि महामारी से लड़ने के लिए रोकथाम ही एकमात्र उपकरण है। महामारी को नियंत्रित करने के लिए लॉकडाउन लगाया गया था, लेकिन यह "8pm कठिन फैसले" करने की आदत को भुनाने के लिए एक राजनीतिक अवसरवाद साबित हुआ और इसके परिणामस्वरूप "भय" और "मनुष्यों पर विश्वास की कमी" के रूप में एक और संक्रामक मनोवैज्ञानिक बीमारी उत्पन्न हो गयी। हम कानूनों को निष्क्रिय करके लॉकडाउन को अनलॉक तो कर सकते हैं लेकिन "सोशल डिस्टेंसिंग" को बनाए रखने के डर से जो "समाज में भय और विश्वास की कमी" हुई है इसका इलाज़ ढूंढ़ निकालना एक कठिन कार्य होगा।

यदि मास्क,हाथ की स्वच्छता और शारीरिक दुरी ही "कोवीड-19/CoVid19/कोरोना महामारी" के लिए मुख्य सुरक्षात्मक उपकरण हैं, तो हमें स्थायी रूप से "सोशल डिस्टेंसिंग" शब्द का उपयोग करना बंद कर देना चाहिए अन्यथा मनुष्य,कोवीड-19/CoVid19/कोरोना महामारी से कम,मनुष्यों से अधिक डरेगा और जिसका अर्थव्यवस्था पर निश्चित तौर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ।

हमारे नेतागण और तमाम गणमान्य बुद्धिजीवियों को इस महामारी के दौरान "शारीरिक दुरी" के जगह पर "सामाजिक दुरी" शब्द कैसे अप्रासंगिक है और इसका जो त्रुटिपूर्ण उपयोग किया जा रहा है,के बारे में बड़े पैमाने पर जन संपर्क/जन संचार शुरू करना चाहिए ताकि मनुष्यों के बीच विश्वास क़ायम किया जा सके. 

हम, मनुष्य सामाजिक होने के लिए यंत्रस्थ हैं। हम "सामाजिक" होकर भी "शारीरिक दूरी" को बनाए रखते हुए महामारी से आसानी से लड़ सकते हैं। कृपया "सामाजिक दुरी /Social Distancing " शब्द का डर मत पाले, महामारी कुछ समय में दूर हो जाएगी लेकिन हमें सामाजिक ही रहना है .. !!


मास्क का उपयोग करें,हाथ को साफ़ करते रहे,सार्वजनिक स्थानों पर "शारीरिक दूरी" बनाए और प्रधान चौकीदार के कथनानुसार हमेशा आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रयासरत रहे..!

Monday, June 1, 2020

सन्देश "आत्मनिर्भर" होने का नहीं "परमात्मनिर्भर" का है

हर भारतवासी को गर्व होनी चाहिए की भारत अब दुनिया के उन सात देशों में आ गया है जहां कोरोना संक्रमण के सबसे अधिक मामले हैं। फ्रांस को भी पीछे धकेल दिया है। भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या 1,88,883 हो गई है। फ्रांस में 1,88,752 मरीज़ हैं। भारत से ठीक आगे यानि छठे पायदान पर इटली है और इसको पीछे छोड़ने में ज़्यादा देर  लगेगी। अमरीका हर क्षेत्र में अव्वल रहता है और कोरोना में भी वह अव्वल ही है,यहाँ 18 लाख से अधिक कोरोना संक्रमण के केस हैं। लॉक डाउन के शुरुआत में भारत कोरोना संक्रमण के मामले मेंं विश्व में २२वें नंबर पर था,आज 7 वें नंबर पर हैं, भारत विश्व में एक मात्र ऐसा देश होगा जहाँ ऐसे वक़्त में लॉकडाउन के कई वन्दिशों में छूट दी जा रही है जब कोरोना संक्रमण के मामले हर दिन एक नयी उचाईयों को छू रही है वर्ना हर कोरोना प्रभावित देश लॉकडाउन तभी हटाने पर विचार करती है जब संक्रमण की रफ़्तार कम होने लगती है.


भारत बिना कोई योजना के सीधे लॉकडाउन की ओर चला गया। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ऐसा कोई सख्त सुझाव नहीं दिया था। लॉकडाउन के दो उद्देश्य थे। कोरोना संक्रमण के फ़ैलाव को रोकना और स्वास्थ्य सुरक्षा को दुरुस्त करना। दोनों ही मोर्चों पर लॉकडाउन पूरी तरह से विफल रहा...सरकार कोरोना प्रबंधन में हर मोर्चे पर ध्वस्त रही है,लॉकडाउन वृहत पैमाने पर टेस्टिंग और कांटेक्ट ट्रेसिंग के ज़रिए कोरोना की रफ़्तार पर नियंत्रण करने का एक अवसर था लेकिन सरकार की दूरदर्शिता का आभाव,लापरवाही,बदइंतज़ामी एवं मजदूरों के पलायन में देशव्यापी अराजकता से ध्यान भटकाने के लिए थाली पिटवाकर,दिया जलाकर लॉकडाउन को टोटका की तरह इस्तेमाल किया और अब जब सरकार को उनके द्वारा लिए फैसले निकम्मी सिद्ध हुई तो आत्मनिर्भर होने वाले सन्देश के साथ कोरोना से हाथ धो सबकुछ राज्य सरकारों पर थोप दिया। 

प्रधान मंत्री के लिए जनता के लिए मन की बात बिल्कुल स्पष्ट थी- "आपका जीवन,आपका परिवार- आप जाने,आपका काम जाने- कोरोना से बच गये तो बच गये,जो चल बसे तो आपका नसीब- कोरोना रहेगा और गाजे बाजे के साथ रहेगा"-बस आपको सिर्फ़ प्रधान मंत्री की लोकप्रियता पर गर्व करते रहना है क्योंकि अभी भारत के विकास रूपी लोकप्रियता लम्बे समय तक निम्न स्तर पर रहने वाली है! कोरोना की विफल सफलता पर राष्ट्राध्यक्ष की लोकप्रियता,राष्ट्र की प्रसिद्धि से ज़्यादा ज़रूरी है.

कोरोना को स्थानिक रोग के तौर पर सीमित कर दिया गया होता तो अलग बात होती लेकिन ये जितने समय तक महामारी के रूप में रहेगा,अनिश्चितता और स्थगन हमारे जीवन का दीर्घकालीन हिस्सा होगा। हमारे सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधान मंत्री ने आत्मनिर्भरता का सन्देश मानो यूँ दिया जैसे की लॉक डाउन से पहले  प्रत्येक भारतीय को विपरीत परिस्थितियों में एक निश्चित सामाजिक सुरक्षा मिलती थी जो कोरोना काल में बंद हो जायेगी। हम समस्त भारतवासी सदैव से ही आत्मनिर्भर ही रहते है क्योंकि हमे पता है की हमारे प्रधान मंत्री का आत्मनिर्भर "PM-CARES" फंड "CITIZEN CARE" के लिए नहीं होगा?


सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार मई 2020 में भारत की बेरोजगारी दर 23.5 फीसदी है.फरवरी में ये दर 7.8 फीसदी और मार्च में 8.8 फीसदी थी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के महेश व्यास की एक टीवी चैनल से बातचीत के अनुसार मई में तक़रीबन 10 करोड़ लोग बेरोज़गार हुए है.कितने लोगों की सैलरी कट हुई है इसकी सटीक गणना उनके पास नहीं थी लेकिन उनके अनुमान के अनुसार ये करीब 5-6 करोड़ होनी चाहिए। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर परिवार का औसत अकार तक़रीबन 5 व्यक्ति है और उपरोक्त संख्या मोटे तौर पर यह तो जरूर बताती है की इस समय हमारे देश में तक़रीबन 60 करोड़ जनसँख्या (देश की आबादी का 45-46%) आर्थिक बदहाली से गुज़र रही है ऐसे में प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भरता का सन्देश स्पष्ट तौर से लोकतंत्र की क्रूरता और प्रजातान्त्रिक मूल्यों से लोककल्याण के विलुप्त होने की सन्देशवाहिका है. 


अंधकार में मत रहिये, प्रधान मंत्री का सन्देश "आत्मनिर्भर" होने का नहीं "परमात्मनिर्भर" का है....अपनी रक्षा ख़ुद करें। शरीर से दूरी बनाए....मास्क ज़रूर लगाएं।



#आत्मनिर्भरभारतपैकेज #SelfreliantIndia #आत्मनिर्भरभारत #CoVid19 #CoronaVirus #SpeakUpIndia  

Thursday, May 28, 2020

मध्यमवर्गीय जनसँख्या और घातक लॉकडाउन

हमारी व्यवस्था वैसे तो मध्यमवर्गीय जनसँख्या के प्रति अनुत्तरदायी तो रहती ही है लेकिन इस कोरोना महामारी में हमारी सरकार/व्यवस्था ने मध्यमवर्गीय जनसँख्या से इस क़दर मुँह फ़ेर लिया मानों यह एक श्रापित समूह हो औऱ जिसके जीविकोपार्जन के लिए व्यवस्थित हद तय करने की कोई आवश्यकता ही ना हो. कोरोना महामारी के अनिश्चितकालीन लॉकडाउन ने अचानक से मध्यमवर्गीय जनसँख्या की कमर तोड़ दी है और इस समूह के आधे से ज्यादा आबादी आज सामाजिक आर्थिक वर्गीकरण के नजरिये से कमजोर और असुरक्षित श्रेणी में आ गयी हैं. इस मध्यमवर्गीय जनसँख्या के लिए भविष्य दृश्यता के रूप अगर कुछ है,वो है कोरोना संक्रमण के आंकड़ों में दिन ब दिन रिकॉर्डतोड़ वृद्धि और इसके एकमेव समाधान के तौर पर सरकार द्वारा रंगारंग लॉकडाउन के कई और चरणों की कटिवद्धता।


मध्यमवर्गीय जनसँख्या को लॉकडाउन प्रथम चरण के दूसरे हफ़्ते से ही उनके कंपनियों से वेतन कटौती या छंटनी के फ़रमान मिलने शुरू हो गए थे और आज अगर इसका सत्यता से आंकलन करेंगे तो पाएंगे की वेतन कटौती या छंटनी जैसी परिस्थिति कमोवेश भारत के लगभग सभी व्यावसायिक संस्थानों एवं मध्यमवर्गीय परिवारों में है.हक़ीक़त में लॉक डाउन के विस्तारों साथ करोड़ो मध्यमवर्गीय परिवार की स्थिति यह हो गई है कि न तो वह किसी से मांग सकता है और न कोई उसे देने का काम कर रहा है,लॉक डाउन में नई नौकरी ढूंढे भी तो कैसे। मध्यम वर्ग में कई ऐसे परिवार हैं जिनके सामने महामारी के भय से ज्यादा भूखमरी की स्थिति का डर है लेकिन इस समूह के लिए सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में इनके लिए आर्थिक सहायता के तौर पर क़र्ज़ के अतिरिक्त कुछ नही है.20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज से देश की अर्थव्यवस्था में तरलता क़ायम रखने की धारा में यह प्रयागराज संगम के सरस्वती के समान विलुप्त है.भारत की वित्तीय व्यवस्था क़र्ज़,क़र्ज़ चुकाने की औकात को देखकर देती है.जब आय की निरंतरता ही नहीं रहेगी,नौकरी ही नहीं रहेगी तो क़र्ज़ देगा कौन ? मतलब 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज प्रस्तुत करने की योजना में यह माना गया है की लॉक डाउन चाहे जितना भी लंबा चले, देश में कोई बेरोज़गार नहीं होगा,किसी की नौकरी नहीं जायेगी! इसको क्या माना जाए - मध्यमवर्गीय जनसँख्या के प्रति सहानुभूति या छलावा? हमारे माननीय एवं सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री टीवी पर यह कहते नहीं थकते की यह मध्यमवर्गीय समाज ईमानदारी से कर चुकाता है -इसको क्या माना जाए- प्रशंसा या अस्पष्टता का राजकीय विपणन?


आम जनता के लिए लॉक डाउन एक आपदा हैं जो क़ानूनन उसके ऊपर आनन फानन में थोपा गया था.भारत की अधिकतर निम्नवर्गीय या अशिक्षित जनसँख्या को लॉक डाउन के मायने एवं इससे जुड़े वन्दिशों का इल्म लॉक डाउन लगने के बाद हुआ है.लॉकडाउन के मायने एवं इससे जुड़े वन्दिशों के बारे में शिक्षित न करने के कारण से गरीबों,श्रमिकों के बीच अराजकता/बेचैनी की जो स्थिति उत्पन्न हुई उससे हज़ारो ग़रीब,श्रमिकों की जान तो गई ही साथ साथ लॉक डाउन का जो मुख़्य उद्देश्य कोरोना संक्रमण के चक्र को तोडना था,वो भी स्पष्ट रूप में विफ़ल हुआ और इसके विपरीत तीतर बितर होकर भारत के कई अनछुए भूभाग तक पहुँच गया.विश्व स्तर पर कम मृत्यु दर होने पर भले ही हम इतरा रहे हो लेकिन लॉकडाउन के विस्तार की मज़बूरी कुछ और ही कहानी वयां करती- ये वो परिस्थिति वयां करती है जिसमे राष्ट्रीय स्तर पर कोरोना प्रबंधन का ध्वस्त होना भी है और जिसे हमे रिकवरी रेट और मोर्टेलिटी रेट से यह बताना चाहते है की स्थितिः नियंत्रण में है परन्तु लॉक डाउन के विस्तार की कीमत पर?


भारत के समकालीन जिन जिन देशों ने लॉक डाउन किया था वो अब लॉकडाउन से बाहर निकलने लगे और हम है की श्रमिकों के पलायन को सुलझाने के वजाये 60 दिनों के लॉक डाउन के बाद आज सुप्रीम कोर्ट में अपना मुँह मियाँ मिठु कर रहे है.हम चाँद की बात करते है लेक़िन ज़मीन पर नियंत्रण देखिये,चाँद परियोजना मिथ्या प्रतीत होगा।


अभी भी करोड़ो की तादाद में ग़रीबो का पलायन शेष है और ऐसे में अगर लॉकडाउन का और विस्तार हुआ तो सोचिये मध्यमवर्गीय समाज की बदहाली कहाँ जाकर रुकेगी? मध्यमवर्गीय जनसँख्या कोई व्यवस्था या पद्धति नहीं है जिसे राजकोषीय उपायों से संभाला जा सकता है,इसके लिए सहायता रूपी वृहत सामाजिक निवेश की आवश्यकता है अन्यथा कुछ समय पश्चात यह आँकलन करना मुश्किल हो जाएगा की कोरोना घातक था या कोरोना के लिए किये गए लॉकडाउन!!

Saturday, May 16, 2020

हमे आरोग्य सेतु ऍप नहीं,भोजन सेतु ऍप चाहिए

कोरोना के नाम पर अचानक लॉकडाउन और इस अचानक लॉकडाउन में हमारे देश के प्रवासी श्रमिक,मजदूर या कामगार के साथ जो दुर्दशा हो रही है उसे शोषण और क्रूरता के लिए मानव इतिहास के किसी भी कालखंड से सर्वाधिक स्वर्णिम माना जाएगा। "जान है तो जहान है" के नाम पर श्रमिक,मजदूर या कामगार को इस हालत में छोड़ दिया गया जिसमे उनके पास भोजन के अभाव के साथ साथ ख़ुद को सुरक्षित रखने के लिए महाराष्ट्र,दिल्ली,तमिलनाडु या कर्नाटक से उत्तर प्रदेश या बिहार तक पैदल यात्रा करने की अनिवार्यता थोप दिया गया..इनके लिए इनका देश अचानक से परदेश हो गया..टीवी पर इनकी दशा देख शरीर सिहर जाता है,तंत्रिका तंत्र मानो स्थिर हो जाती है परन्तु इन पर करुणा दिखाने के वजाये समस्त लोकतंत्र इंसानो की इम्युनिटी बढ़ाने के लिए त्रिकटु चूर्ण बाँट रही है.

हमारी लोकतंत्र की इम्युनिटी इतनी ख़राब है ये किसी को कहाँ पता था.लॉकडाउन जैसी विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की सरकारी योजना या मानदंडों में प्रवासी श्रमिक,मजदूर या कामगार थे ही नहीं? कोरोना ने अब तक जितने(2752) लोगो की जान ली है उससे कही ज्यादा हमारे लोकतंत्र की ख़राब इम्युनिटी के वजह से प्रवासी श्रमिकों की जान गयी है.

The Hindu अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ विभिन्न राज्यों में फंसे लगभग ११ हजार प्रवासी श्रमिकों के सर्वेक्षण में पाया गया कि 8 अप्रैल से 13 अप्रैल के बीच, 96% प्रवासी श्रमिकों को सरकार से राशन नहीं मिला। सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से 90% को उनके नियोक्ताओं द्वारा मजदूरी भुगतान नहीं मिला। 27 मार्च से 13 अप्रैल तक, सर्वेक्षण में शामिल 70% श्रमिकों के पास जीविका के लिए २०० रुपये से भी कम बचा था. यह सर्वेक्षण Stranded Workers Action Network (SWAN) द्वारा किया गया था .. सुचना के नाम पर झुठ परोसने वालों को The Hindu अखबार की इस रिपोर्ट में देशद्रोह दिखाई देगा,असली देशभक्ति तो सिर्फ जमात जमात की रट लगाना है.

सही तरीक़े से आँकलन करें तो पायेंगे की कोरोना भारत में ख़ुद से नहीं आया,लाया गया है,संक्रमण को सत्कार से पोषित किया गया और फिर इसके लिए आनन् फ़ानन में लॉकडाउन का चक्र तैयार किया गया और यह बताया गया की कैसे गणित/सांख्यिकी और नारों/theme से कोरोना को मात दी जायेगी। याद कीजिये कोरोना संक्रमण से बचने के लिए मास्क कितना ज़रूरी ये दूसरे चरण के लॉकडाउन के उद्घोषणा में बताया गया था!

WHO ने वैश्विक स्तर पर मौत के आंकड़ों का विपणन करके कोरोना महामारी को इतना भयावह बताया मानो समस्त मानव जाती विलुप्त होने वाली है.ध्यान रहे सामान्य तौर पर भारत में हर दिन लगभग 27000 लोगो की मृत्यु होती है! WHO ने दुनिया को वैश्विक स्तर पर मौत के आंकड़ों में कभी भी जनसांख्यिकीय विविधता,समुचित इलाज़ की प्राथमिकता में भेदभाव को बताया ही नहीं। एक ऐसी वैश्विक संस्था जिसकी स्वास्थ्य के मामले में अभिभावक होने की ज़िम्मेदारी है,वह हर दिन एक नयी बात करके गुमराह या यूँ कहे की भयभीत कर रहा है.सोचिये वैश्विक स्तर पर नेतृत्व एवं WHO की इम्युनिटी कितनी ख़राब है?

हमारे देश में ग़रीबी और खाद्य सुरक्षा सर्वदा से स्थानिक रोग रहा है और ऐसे में प्रवासी श्रमिकों,मजदूरों या कामगारों को लॉकडाउन में क्रूरता के साथ अनाथ छोड़ देना हमारे गणराज्य के तीनो स्तम्भों विधायिका,न्यायपालिका,कार्यपालिका की ख़राब इम्युनिटी को दर्शाता है.देश जब इनके लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता वो महामारी से क्या लड़ेगा ? हम कोरोना से जितने से पहले कई बार मरेंगे वह भी तड़प तड़प कर!

हमारे देश में खाद्य सुरक्षा के प्रति करुणा और संवेदनशीलता के उदहारण है.Amma Unavagam(Tamil) को ही ले लीजिये। यह तमिलनाडु सरकार द्वारा संचालित एक खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम है। Amma Unavagam का शाब्दिक अर्थ है माँ की कैंटीन (अम्मा कैंटीन)। यह भारत में किसी भी सरकार द्वारा चलाई गई पहली योजना है। बिना किसी योजना के अचानक से थोपे गए लॉकडाउन के दौरान तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन गरीबों के लिए वरदान सिद्ध हुआ है.सत्तारूढ़ एआईएडीएमके राज्य में मौजूद कैंटीन के भोजन का पूरा खर्च वहन करके अम्मा कैंटीन को ग्राहकों के लिए मुफ्त कर चुकी है. राज्यभर में लगभग 650 अम्मा कैंटीन में से अकेले चेन्नई में ही 407 हैं. यहां सुबह के नाश्ते में इडली, दोपहर के लिए विभिन्न प्रकार के चावल जबकि रात के खाने के लिए रोटी आदि भी उपलब्ध कराई जाती है.

भारत एक श्रमिक अधिशेष देश है और इसके लिए सबसे पहले लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में गरीबों एवं श्रमिकों के प्रति करुणा के लिये मजबूत इम्युनिटी की आवश्यकता है जिससे की हमारी व्यवस्था विपरीत परिस्थितियों में लोगो को कम से कम भोजन जैसी बुनियादी जरूरतों को सुनिश्चित कर सके.

हमे शहर-शहर,गाँव-गाँव अम्मा कैंटीन जैसी खाद्य सुरक्षा चाहिए ताकि ग़रीब, प्रवासी श्रमिक लॉकडाउन जैसी विपरीत परिस्थितियों का डट कर मुक़ाबला कर सके....हमे आरोग्य सेतु ऍप नहीं,भोजन सेतु ऍप चाहिए...

#CoVid19 #StrandedMigrantWorkers #CoronaVirus #Tamilnadu #AmmaCanteen

Thursday, May 14, 2020

चुनौती तो अब आत्मनिर्भर होने की है..."अच्छे दिन" का क्या ये तो महज एक नारा था...


हम "पी.सी.सरकार" का इसलिये समर्थन नही करते कि इन्होंने हमारे बारातियो का स्वागत "पान पराग" से नही किया था.. हम इसलिए समर्थन करते है कि ये भारत को काल्पनिक योजनाओं और घोषणाओं के नाम पर अनगिनत बार बंटवारा कर चुके है...इन बंटवारों से "पी.सी.सरकार" को मीडिया हेडलाइंस में शोहरत तो मिलती है लेकिन देश को सिर्फ हताशा या यूं कहें कि ख़्याली खिचड़ी ही मिलता है...अब तक राजनैतिक रैलियों या चुनावी जनसभाओं में इन्होंने जितने भी वादे किए है उसका स्टेटस पता कीजिये,कमल कम, कीचड़ ही ज्यादा मिलेगा...

अब आप आत्मनिर्भर अभियान पैकेज को ही देख लीजिये, कर्ज के जरिये कोई भी वित्तीय व्यवस्था आत्मनिर्भर हो सकती है क्या? इससे दुकाने तो ज्यादा खुल जायेंगी लेकिन खरीददारों की संख्या कैसे बढ़ेगी इसका "पी.सी.सरकार" के किसी मंत्री को नही पता....सिर्फ कर्ज से अर्थव्यवस्था का पोषण का मतलब आर्थिक मंदी का endemic के रूप में हमारे बीच स्थायित्व हो जाना...

भारत जैसे विशाल देश में कोरोना जैसी संक्रामक महामारी के प्रबंधन में "पी.सी.सरकार" द्वारा हर दिन theme/ विषय परिवर्तित करना बौद्धिक निर्बलता को दर्शाता है..कभी जान से जहान तो कभी जान भी जहान भी इत्यादि इत्यादि ...कोरोना महामारी में आज उपभोक्ताओं का अस्तित्व डाँवाडोल है और असल मे जरूरत है उपभोक्ताओं को आर्थिक तौर पर ससक्त बनाने की वह भी कल्याण से कर्ज से नही...

भारतीय अर्थतंत्र मुख्यतः घरेलु उपभोग पर निर्भर है और ऐसे में उपभोक्ताओं को सशक्त बनाने की प्राथमिकता होनी चाहिए...वित्तीय संस्थानों का व्यवसाय ही है सूदखोरी का,पैकेज में डालो या न डालो...जो पैकेज घोषित किया है उसमें सबकुछ बैंको पर थोपा गया है...सरकार इसमे सिर्फ समाचार उद्घोषक की तरह है.."पी.सी.सरकार" ने भारतवासियों से जब मदद   (#PMCARES) की गुहार लगाई तो भारतवासियों ने उनके खाते में डायरेक्ट दान दिया...हमने तो दान का कोई अपरोक्ष जरिया नही बताया...

"पी.सी.सरकार" को आत्मनिर्भर बनाने की इतनी चिंता है तो DBT(Direct Benefit Transfer) के जरिये उपभोक्ताओं के माँग की अग्नि प्रज्ज्वलित करने की सोचते... ताकि MSME"s या LSI's जो उत्पादन करे उसके विक्रय के साथ साथ उचित मुनाफा भी सुनिश्चित हो...

आत्मनिर्भर की इतनी चिंता होती तो रेल परिसर में Google के वजाए MTNL या BSNL का फ्री वाईफ़ाई होता...आत्मनिर्भर की इतनी चिंता होती "पी.सी.सरकार"  के convoy के लिए महिंद्रा की गाड़ियां होती...आत्मनिर्भर की इतनी चिंता होती तो  "पी.सी.सरकार" Montblanc पेन की जगह Linc पेन का  इस्तेमाल करते....सिर्फ theme से कोई भी व्यवस्था भीम जैसा बलशाली नही हो सकता,इसके लिए उचित पोषण भी जरूरी है...theme/नारा "अच्छे दिन" का भी था पर देखिये यह कहाँ आकर अटक गया...चुनौती तो अब आत्मनिर्भर होने की है..."अच्छे दिन" का क्या ये तो महज एक नारा था...भुल जाइये इसे...please


**पी.सी : प्रधान चौकीदार


#आत्मनिर्भरभारतअभियान #Atmanirbharbharat

Sunday, May 10, 2020

मनरेगा- भारतीय विधायिका की विफलता नही दूरदर्शिता है


मेरी राजनैतिक सुझबुझ ये कहती है की #मनरेगा कभी बंद मत करो...मैं ऐसी गलती नही कर सकता हूँ....क्योंकि... क्योंकि...मनरेगा आपकी(#काँग्रेस) विफलताओं का जीता जागता स्मारक है...आज़ादी के 60 साल के बाद आपको(#काँग्रेस) लोगो को गड्ढ़े खोदने के लिए भेजना पड़ा...ये आपकी विफलताओं का स्मारक है..और मैं गाजे बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पिटता रहूंगा...

प्रधान सेवक श्री नरेन्द्र मोदीजी

https://m.youtube.com/watch?v=5nBRKUf6AAo&feature=youtu.be


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अच्छी राजनैतिक सूझबूझ और दूरदर्शिता दो अलग प्रकार के दर्शन है ज़नाब...अच्छी राजनैतिक सूझबूझ विकासशील देश की सियासी संस्थाओं के लिए जरूरी होंगी, विकासशील देश के लिए तो कल्याणकारी दूरदर्शिता ही काम आएगी...

आज यही "मनरेगा रूपी विफलताओं का स्मारक" कोरोना महामारी में ग्रामीण भारत को जीवित रखने के लिए संजीवनी का कार्य कर रही है...

आज #मनरेगा अकेले आधे भारत का कोरोना वॉरियर है...ढोल नगाड़ा तो बनता है...



#manrega #DrManmohanSingh