Negative Attitude

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Thursday, December 20, 2012

पुरुष- पशु या भर्तार?

हाल ही में दिल्ली में चलती बस में फिजियोथेरेपिस्ट के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना हृदय विदारक,शर्मनाक और दुखद है और यह साबित करता है कि हममें इंसानियत का स्तर कितना नीचे गिर चूका है?अब वह समय आ गया है कि हमारे देश में भी सऊदी अरब जैसे कानून लागू किए जाएं। पुरुष स्वभाव से पशु होता है इस वैज्ञानिक सत्य को आज दिल्ली की इस घटना ने प्रमाणित कर दिया है।यह एक सामाजिक आतंकवाद जैसा है जो सड़ी हुई पुरुष प्रधान सोंच से उत्पन्न हुई है और अगर इस पर शीघ्र नकेल नहीं कसी गयी तो यह पुरे समाज को अपनी चपेट में लेकर अघात करता रहेगा और ऐसे लोगो की सजा जैसे को तैसा आधार पे सुनश्चित की जानी चाहिए। मुझमे इस विषय पर इससे अधिक बोलने की हिम्मत नहीं है।

आधुनिकता की अगुआई में आज हमारा भारत कई परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा है। बढती आमदनी,शिक्षा का स्तर,मीडिया का प्रभाव,एवं कठिन होती जीवन यापन की शैली ने लोगो के पास एक ही विकल्प दे रखा है और वो है प्रवर्जन। छोटे शहरों से सार्वलौकिक(Cosmopolitan)शहरों में प्रवर्जन आज के दौर में एक क्रांति है जो नए एवं अत्याधुनिक भारत की एक अलग तस्वीर भी प्रस्तुत करती है वही दूसरी ओर विशाल जनसँख्या होने के नाते सामाजिक विषमताओं का संक्रमण पुरे समाज को बीमार करता जा रहा है। सोंच और शिक्षा आपस में सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा है और परिणामस्वरूप आज मौज-मस्ती,मनोरंजन अपराध का रूप ले रहा है।इस प्रकार की सामाजित विकृति एक ऐसी महामारी है जो विज्ञान के साथ साथ प्रकृति को भी खुलेआम चुनौती दे रहा है एवं स्पष्ट रूप से मनुष्य के अस्तित्व को विनाश की ओर धकेल रहा है। व्यवस्था परिवर्तन से ज्यादा महत्वपूर्ण है अपनी सोच और अपनी शिक्षा के मध्य सामंजस्य का प्रवाह कराना। छोटे शहरों से सार्वलौकिक(Cosmopolitan) शहरों में जब लोग आते है तो उनका सामना एक अपरिचित संस्कृति से होता है। परदे में लिपटे माहौल में पले बढे लोगो के लिए पश्चिमी सभ्यता से प्रेरित महिलाओं के लिबास और शहर की उदार मानसिकता देख उनके पुरुष प्रधान समाज वाली सड़ी हुई मानसिकता को एक सांस्कृतिक धक्का/झटका लगता है और यह धक्का/झटका/सदमा सोंच और शिक्षा के मध्य सामंजस्य की आभाव वाली मस्तिस्क को अपराधिक सोच में तब्दील कर देती है। इस तरह के एक अपरिचित संस्कृति से उत्पन्न होने वाले संस्कृति सदमे को रोकने के लिए वैज्ञानिक तौर पर कोई ठोस उपाय नहीं है, इसका उपाय सिर्फ और सिर्फ सोंच और शिक्षा का सामंजस्य वाला मस्तिस्क ही हो सकता है जो इस तरह के सांस्कृतिक विरोधाभासों के दुष्प्रभाव को सकारात्मक रूप में स्वीकार कर सके.मैं भी एक छोटे शहर से हूँ फिर भी मुझे इसे लिखते हुए कोई तकलीफ नहीं हो रही है...अगर छोटे शहरों के लोग अपनी इस मानसिकता से बाहर नहीं निकल सकते तो आप सार्वलौकिक(Cosmopolitan)शहरों में प्रवर्जन ना करें। यह आपके और समस्त समाज के लिए हितकारी होगा। छोटे शहरों के लोगों को यह बात अच्छी नहीं लग रही हो या उनकी भावनाओं को ठेस पंहुचा हो तो मैं क्षमा मांगता हूँ लेकिन सोंच,शिक्षा और मानसिकता की दूरी मिटाए बिना एक सुरक्षित समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता और इस बात से आप सभी को सहमत भी होनी चाहिए।

दूसरी तरफ आज की गैर जिम्मेदार फिल्म्स भी सोंच,शिक्षा और मानसिकता की विकृति में अग्नि उद्दीपन का कार्य कर रही है । आज समाज में फैल रही अश्लीलता और अपराध को सर्वाधिक रास्ता दिखा रहा है यह गैरजिम्मेदार फिल्म्स। इससे युवा पीढ़ी पर होने वाले गलत असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ वर्षो पे निगाह डालें तो आपको पता चलेगा की भारतीय सिनेमा में इस दौरान आइटम गीत या आइटम नंबर (मेड इन इंडिया ओनली) का प्रचलन का खूब प्रचार प्रसार हुआ है। मैं आइटम गीत या आइटम नंबर की इस लिए चर्चा कर रहा हूँ की फिल्मों में आइटम गीत या आइटम नंबर रखने का एक ही मकसद होता है...महिलाओं को आगे कर संगीत के जरिये यौन उत्तेजक भावनाओं का प्रदर्शन करना। या फिर दुसरे शब्दों में कहें तो महिलाओं को अश्लीलता के श्रृंगार में मनोरंजन के रूप में परोसना। इससे मनोरंजन कितना होता है ये तो मुझे समझ नहीं आता लेकिन यह समाज में महिलाओं की हैसियत कमजोर जरूर करती है और साथ साथ लोगो को महिलाओं के अस्तित्व को लेकर गलत सन्देश भी देती है। अक्सर आइटम गीत या आइटम नंबर का सिनेमा के कथानक से कोई सम्बन्ध नहीं होता इससे तो बस अश्लीलता परोसकर सिनेमा की विक्रय क्षमता को बढ़ाना होता है। इस तरह के सिनेमा को U/A प्रमाणपत्र तो दे दिया जाता है लेकिन महिलाओं के अस्मिता की खुलेआम प्रदर्शनी किसी को भी नजर नहीं आती? आइटम गीत या आइटम नंबर को लेकर भी कुछ सख्त नियम होने चाहिए जैसे जिस भी फिल्म में अगर यौन उत्तेजक भावनाओं से ओत प्रोत आइटम गीत हो तो उसे A फिल्म प्रमाणित किया जाना चाहिए ताकि परिपक्वता पर नियंत्रण रखा जा सके। क्योंकी विज्ञान कहता है की युवा स्त्री के मुख व शरीर से एक प्रकार के फेरोमोंस का स्राव होता है जो पुरुष हार्मोन Androgen के लिए उद्दीपक का काम करता है।ये फेरोमोंस बिना स्पर्श के ही Olfactory(घ्राण ) और Optic (दृष्टि ) तंत्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क को सन्देश पहुचाते हैं।यह सन्देश पिटयुटरी ग्रंथि तक पहुँच कर उसे पुरुष सेक्स हार्मोन Androgen को उत्तेजित करने का आदेश देता है, जिसके फलस्वरूप पुरुष उसके प्रभाव को शांत करने के लिए स्त्री पर अनाधिकार व असामाजिक कृत्य करने पर मजबूर हो जाता है। यह एक स्वाभाविक वैज्ञानिक प्रक्रिया है तो फिर हमारी व्यवस्था,हमारी फिल्म प्रमाणन बोर्ड या हमारा समाज इस कटु सत्य को नजरंदाज क्यों करती है? अब फिल्म उद्योग को भी जिम्मेदार होना पड़ेगा? मनुष्य धरती पर पाया जाने वाला एकमात्र ऐसा जीव है जो प्रकृति द्वारा बनायी हुई रासायनिक, भौतिक, व जैविक नियमों से बंधी हुई स्वचालित मशीन (अर्थात शरीर) को अपनी मनमर्जी के मुताबिक खुद के निर्देशों पर चला सकता है.लेकिन मनुष्य अगर पशुओ जैसा व्यवहार करने लगे तो पशुओं और मनुष्यों की जीवन शैली बिलकुल एक सी हो जायेगी ..जिसमें रिश्ते-नाते,तहज़ीब,संयम और वर्जनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होगा? हमारे समाज के धर्म गुरु/पंडित चाहे जितना भी कहे की हमारे देश में स्त्रियों का बहुत मान-सम्मान होता है,उनकी पूजा की जाती है इत्यादि लेकिन हकीकत क्या है? हम सब जानते है.. स्त्रियों के प्राकृतिक स्त्र्योचित गुण और उनके मनोविज्ञान के कारण उन्हें हमेशा ही पुरूषों से हीन माना जाता रहा है। हमारे समाज में पुरुष हमेशा ही सीना तान कर चलता है वही स्त्री हमेशा झुककर? किसी ने सत्य ही कहा है की सिर्फ भौतिक समृद्धि से समाज में बराबरी संभव नहीं है, क्योंकि बराबरी के दो हिस्से हैं। एक है इक्वॅलिटी (बराबरी), चाहे वह सामाजिक हिस्सेदारी की हो या कानून की। दूसरी है रिकॉग्निशन (पहचान), जिसे हम सोशल इक्वॅलिटी(सामाजिक बराबरी) या मॉरल इक्वॅलिटी(नैतिक बराबरी) कह सकते हैं। पुरुषों को हमारे समाज ने भर्तार (भर्तार जिसका अर्थ वरण, भरण और तारण है/ हर कन्या के लिए विवाह से पहले उसका पिता और विवाहोपरांत पति भर्तार है) शब्द से नवाजा है और अगर इस प्रतिष्ठा,सम्मान को बचा कर रखना है तो पुरुषों को आत्मनियंत्रण और विज्ञान एवं मनोविज्ञान के महत्त्व को समझकर खुद और समाज के प्रति जिम्मेदार बनना होगा वर्ना अति का अंत सदैव पीड़ादायक होता है?

Thursday, December 13, 2012

दाढ़ी या लालसा


हाल ही में एक प्रमुख बाजार अनुसंधान एजेंसी द्वारा देश भर में 1000 से अधिक भारतीय महिलाओं पर एक दंपति द्वारा साझा अंतरंगता के स्तर पर शाम की छोटी छोटी दाढ़ी के प्रभाव को समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया और इस अध्ययन से पता चला की महिलाएं ऐसे पुरुष को पसंद करते है जो सुबह के साथ शाम में भी शेव करते है। इस अध्यन के परिणाम को आजकल पुरे देश में 'SHAVE OR CRAVE' यानि 'दाढ़ी या लालसा' आन्दोलन के रूप में चलाया जा रहा है। कुछ समय पहले ऐसा ही एक सर्वेक्षण अमेरिका में भी हुआ था लेकिन वो पुरुषो के ऊपर किया गया था। इस अध्ययन के तहत ये बात सामने आई कि पुरुषो के मूछों का उनकी सैलरी पर बहुत असर पड़ता है। ये अध्ययन अमेरिकन मुस्टैच इंस्टीट्यूट की ओर से आयोजित कराई गई थी। अध्ययन में पता चला था कि मूंछ वाले अमेरिकन 4.3 क्लीन शेव और बिना दाढ़ी वालों से 8.2 फीसदी ज्यादा पैसे कमाते हैं। इस अध्यन से एक और मजेदार सामने आई थी कि जो लोग मूंछ रखते हैं वो बेहद खर्चीले भी होते हैं मतलब की सफाचट पुरुष कंजूस!!! गौरतलब है कि अगर ये अध्यन सही साबित हुई तो हमारे देश में 'SHAVE OR CRAVE' यानि 'दाढ़ी या लालसा' आन्दोलन की वकालत कर रहे महिलाओं को थोडा तो आघात पहुँचने वाला है।

इस पुरुष प्रधान ब्रह्माण्ड में दाढ़ी, मूंछ पुरुषों की आन और शान का प्रतीक माना जाता रहा है पर आज के आधुनिक युग में इस आन और शान का प्रतीक 
मानो भारत से गायब हो रहे बाघों की तरह आज के चेहरों से विलुप्त होने वाली प्रजाति में शामिल हो चुकी है और अगर समय रहते इसे बचाया न गया तो आपने प्रसिद्ध फिल्म शराबी का वो डाइलोग….. मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी वर्ना न हों जैसी दाढ़ी,मूछों की महिमा का गुणगान कौन करेगा?
इतिहास पर अगर नज़र डालें तो शायद सब से पहली मूछ आदि देव शंकर जी को उपलब्ध थी। दाढ़ी,मूछें तो वास्तव में कुछ गिने चुने देवों को ही प्राप्त थी। युग धीरे धीरे बदलता रहा पर दाढ़ी,मूछों की महिमा सदा ही अपना महत्व रखती रही लेकिन आज के आधुनिक युग में इस आन,बान और शान के प्रतिक लालसा के आगे नतमस्तक होने को मजबुर है। जागो मर्दों जागो..धरोहर दांव पे लगी है। मर्दों के आन,बान और शान के प्रतिक के महिमा पर एक कवि की कविता याद आ रही जो आपको सुनाता हूँ ताकि इस धरोहर को संरक्षित करने की उर्जा मिले और इसे विलुप्त होने से बचाया जा सके....

आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,
बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।
जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,
मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,
कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,
सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण।


क्लीन शेव के इस ज़माने में दाढ़ी,मूछों का प्रचलन निरंतर घट रहा है लेकिन उपयोगिता और महत्व अपनी जगह बरकरार है ..जैसे.. मेरे अनुमान से मूछें कैटेलिटिक कनवर्टर वाला एयर फ़िल्टर है, इस की मदद से अँधेरे में टटोल कर ही पता कर सकते हैं कि मर्द है कि औरत,मूछें मर्दानगी का थर्मामीटर हैं(???), दाढ़ी,मूछें साहस का संचार करती हैं। आज दाढ़ी,मूंछों को जितनी ज़िल्लत देखनी पड़ी है उतनी किसी युग में नहीं, नए युग के फैशन में जब कन्याएं जींस शर्ट पहनने लगी हैं और क्लीन शेव और लंबे बालों का प्रचलन बढ़ा है …तो देख कर सहज ही ये पहचाना भी मुश्किल हो गया है कि ये आखिर कौन सी योनि के मनुष्य है.:-) दाढ़ी,मूँछों का एक लम्बा इतिहास रहा है। पुराने ज़माने में घनी कड़कदार मूँछे पाली जाती थी जिनको मोम आदि से संवारा और दमदार बनाया जाता था। इतिहासकार बताते हैं कि मूँछों पर निंबू खडा करने की प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थीं। अब न वैसी मूँछें दिखाई देती हैं न वैसे जवाँ मर्द! इतिहासकार यह भी बताते हैं कि मुस्लिम काल तक भारत में दाढ़ी-मूँछ का चलन अधिक रहा। अंग्रेज़ों के आगमन के साथ ही हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ पुरुष के चेहरे से दाढ़ी-मूँछ भी गायब होने लगे। तभी तो हैदराबाद के अंग्रेज़ रेसिडेंट किर्कपैट्रिक ने मुस्लिम नवाबों की तरह जब मूँछे रखना शुरू किया तो बात इंग्लैंड तक पहुँच गई कि कहीं वो मुसलमान तो नहीं हो गए हैं और नतीजा यह हुआ कि उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा।फिल्म जगत में भी मुग़लेआज़म की अकबरी मूंछों से लेकर करण दीवान व राजकपूर कट मूँछें प्रसिद्ध हुईं।अब तो दाढ़ी-मूँछ देश या प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर भी जानी जाती हैं; जैसे, फ़्रेच, जर्मन या फिर लिंकन,लेनिन जैसी दाढ़ी।

मुगल शासनकाल के दौरान हेरात से रंगून तक दक्षिण एशिया में अदालत और लोगों के कपड़े पर मुगल पहनावे का प्रभाव था और चमकदार लाल तुर्की टोपी 1950 के दशक तक हॉलीवुड फिल्मों में मुसलिम पहचान का निर्धारक दृश्य हुआ करता था. जब तक कि तुर्की में सुधारवादी मुस्तफा कमाल पाशा ने इसे मध्यकालीन अतीत का प्रतीक मानते हुए बंद नहीं कर दिया. ब्रिटिश ने हमें पैंट दिया, जिसके लिए मैं खासकर उनका शुक्रगुजार हूं. यह मेरे पूर्वजों की धोती और लुंगी के मुकाबले व्यावसायिक तौर पर काफी आरामदायक है, हालांकि अब मैं एक पीड़ित की पीड़ा वयां कर रहा हूँ। ब्रिटिश ने अपने साम्राज्य और बड़े भू-भाग को ड्रेस कोड दिया. अमरीका ने भोजन दिया.यह फास्ट था,लेकिन फूड था.फास्ट लाइफ की संजीवनी.. यह लोकतंत्र और धनतंत्र के बीच बढती मित्रता का परिणाम है. ऐसा ही ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी दौर के समय था. ब्रिटिश खाने को विरोधाभासी कह भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन यह जठराग्नि के लिए डिजाइन किया गया था, ना कि स्वाद के लिए. दूसरी ओर अमरीकी कपड़े के महत्व को नहीं समझते. जींस को अमरीका का योगदान करार देना इस बात का विज्ञापन करना है लेकिंग मैं इसका प्रसार करूँगा. अमरीका ने ही अपने दौर में मोटापे के लिए दुनिया पर कब्जा करने के लिए बर्गर बनाया.आप यह बर्गर हांगकांग में पार्टी की बैठक या मक्का में हज के बाद या इलाहाबाद में गंगा स्नान के बाद खा सकते हैं. आप जहां भी जायें बर्गर आपका पीछा करता है...बिलकुल फेविकोल टाइप चिपकु ...

स्टाइल की कीमत है, इसे खरीदा जा सकता है परन्तु संस्कृति अनमोल है. संस्कृति मौजूदा आधुनिक जरूरतों, मजबूरियों या आकर्षणों से अधिक गहरी है और इसका उदहारण कोई और नहीं वल्कि हमारा भारत है.आज भी हम ज्यादातर भारतीय अपनी अंगुलियों से ही खाते हैं न की छुरी-कांटे से। दसवें गुरु गोविंद सिंह ने 'खालसा' (शुद्ध) परंपरा की स्थापना की। खालसाओं के पांच अनिवार्य लक्षण निर्धारित किये गये, जिन्हें 'पाँच कक्के' या 'पाँच ककार' कहते हैं, क्योंकि ये पाँचों लक्षण 'क' से शुरू होते हैं, जैसे- केश, कंधा, कड़ा, कच्छा और कृपाण। ये पाँचों लक्षण एक सिक्ख को विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।

क्लीन शेव रखना है या दाढ़ी मूंछ यह अपने अपने सोच पर निर्भर करता है पर लालसा के आगोश में निर्णय लेना खतरों भरा हो सकता है। सावधान..सावधान..सावधान..जागो मर्दों जागो..
 

Friday, November 23, 2012

अधिकार हो ऐसा जो बदल दे सारा इमां

अधिकारों से अपराध करे
कहते उसे न्याय
अधिकार नहीं तो हो अपराधी

अधिकारों से अपराध करे
तो दर्जा प्रेम का
अधिकार नहीं तो कहते उग्रवादी

जन संहार तो जन संहार है
अधिकारों से उसे क्या लेना
परिणाम तो एक ही है
इंसानों की जान लेना

मौत के बदले मौत
अपराध के बदले अपराध भी तो अपराध है
एक बलि क्या बदलेगी इस सोच को
जहां घात लगाये बैठा सारा जहाँ है

इंसानों ने ली है अब मौत की जिम्मेदारी
तिथि,समय निर्धारण में भी हिस्सेदारी
पसंद से चयनित होंगे अपराध
यहाँ मानव प्रेम की किसको है पड़ी
मौत दिखती है अब फुलझड़ी
कहते जान के पीछे छुपा
है जान
अपराधो की लडियां है, इसकी पहचान
बस मानव जाती का हो रहा अपमान

कहते मौत प्रकृति है
विधि का
है विधान
फिर भूलते यहाँ क्यों इसकी पहचान
अधिकार हो ऐसा

जो बदल दे सारा इमां
अपराधी,अपराधी न रहे
बन जाए इंसान...
Smiley

Tuesday, November 20, 2012

दोमुही राजनीती देखकर दम घुंटने लगा है अब..

श्री बालासाहेब ठाकरे के मृत्यु के बाद उनकी जिंदगी,शख्सियत एवं राजनैतिक विचारधारा के बारे में लोग अलग अलग तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहे है। कोई उनके बारे में नकारात्मक विचार रखते हैं तो कोई सकारात्मक। परन्तु सोचने वाली बात यह है की आजकल की तेज रफ़्तार वाली जिंदगी में जहाँ लोगो के पास अपने सगे सम्बन्धियों,मित्रों,पड़ोसियों का हाल पूछने का समय नहीं है वहां श्री बालासाहेब ठाकरे के बारे में चर्चा और विचार अभिव्यक्त करने के लिए इतना समय कहाँ से आ गया? इसका एक ही मतलब निकला जा सकता है की आम लोगो की जिंदगी में श्री बालासाहेब ठाकरे की सख्सियत का प्रभाव इतना गहरा था की लोग उनके के बारे में अपनी विचार अभिव्यक्त करने को विवश है। जब बात नेता और अवाम की होती है तो मतभेद,मनभेद स्वाभाविक है फिर चाहे वो सकारात्मक हो या नकारात्मक। लेकिन जब बात श्री बालासाहेब ठाकरे जैसे असाधारण नेता की होती है तो यही वैचारिक मतभेद थोडा जटिल हो  जाता है।

श्री बालासाहेब ठाकरे क्यों एक असाधारण नेता थे ? आइये इस बात पर थोड़ा विस्तार से प्रकाश डालते है।

ऐतिहासिक तौर पे मुंबई हमेशा से ही पश्चिमी सभ्यता के रंग में सराबोर एक सार्वलौकिक शहर रहा है। इतिहास बताता है की बॉम्बे में 
125 साल तक पुर्गालियों ने शासन किया। सन 1662 में पुर्तगाल की राजकुमारी (कैथरीन ब्रगान्ज़ा) नें चार्ल्स द्वितीय (इंग्लैंड के राजा) से शादी कर ली और उसके पश्चात पुर्गालियों ने दहेज़ के रूप में मुंबई शहर को ब्रिटिश हुकूमत को उपहार दे दिया। फिर ब्रिटिश हुकूमत ने इसे एक प्रमुख बंदरगाह के रूप में विकसित किया जिससे यह एक विशाल व्यापारिक शहर के रूप में विकसित हुआ और18वीं सदी के मध्य तकबॉम्बे में मानो पुरे देश से प्रवासियों की बाढ़ आ गयी।1947 में भारत आजाद हुआ और कुछ क्षेत्रो के विस्तार के साथ बॉम्बे प्रेसीडेंसी से बॉम्बे स्टेट का निर्माण हुआ। इसी समय एक अलग राज्य महाराष्ट्र(बॉम्बे सहित) के लिए संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन अपनी ऊंचाई पर था और अंततः इस आन्दोलन ने 1 मई 1960 को एक मराठी भाषी राज्य महाराष्ट्र का जन्म दिया और बॉम्बे इसकी राजधानी हुई। स्पष्ट है मुंबई में प्रवर्जन 200 साल पहले से हो रही है और जब मराठी भाषी राज्य महाराष्ट् बना तब भी मुंबई के सार्वलौकिक शहर होने की कारण मराठी भाषा अल्पसंख्यक ही था। प्रमाण के तौर पर सरकारी आंकड़े देखे जा सकते है।श्री बालासाहेब ठाकरे उस समय शायद स्वतंत्र हुए भारत की राजनितिक बेचैनी,असुरक्षित सामाजिक परिवेश और मुंबई की व्यवसायिक हैसियत को अच्छी तरह समझते थे और महाराष्ट्र के एक अलग मराठी भाषी राज्य के निर्माण की संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के जज्बे के आँचल में उन्होंने यह चिन्हित कर लिया था की मराठी माणूस को मानुस की विशाल भीड़ से अलग करना है और मराठी भाषी के नाम पर बनी राज्य महाराष्ट् और मराठी भाषी जनता को एक अलग पहचान दिलानी है। और अपने इसी उद्देश्य के साथ पहले अपने कार्टून साप्ताहिक 'मार्मिक' के माध्यम से, वह गुजराती, मारवाड़ी एवं दक्षिण भारतीय के मुंबई में बढ़ते प्रभाव के खिलाफ अभियान चला मराठी  माणूस को मानुस की विशाल भीड़ से अलग करने की खुलेआम नींव डाली और फिर 1966 में शिवसेना पार्टी का गठन किया। श्री बालासाहेब ठाकरे ने एक मंच दिया जहाँ मराठी मराठी माणूस अपने अधिकारों के लिए लड़ सके। अगर लोकतंत्र नहीं तो ठोकतंत्र। उन्होंने मुंबई में झुनका भाकर से लेकर पुरे महाराष्ट्र में सरकारी नौकरी तक मराठी माणूस का मिलकियत सुनिश्चित किया। बालासाहेब ने राजनीती में जो भी बोला,किया या इनसे जुड़े जो भी विवाद हुए उसकी एक ही केन्द्रबिदु रही है और वह है मराठी माणूस,मुंबई,महाराष्ट्र प्रेम। बालासाहेब की इसी राजनीती ने मराठी माणूस का मनोबल बढाने के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी सुनिश्चित किया। बालासाहेब की मराठी माणूस प्रेम ने राजनीती का एक अलग सूत्र प्रांतवाद एवं भाषावाद की राजनीती का भी आविष्कार किया.यह बेशक लोकतान्त्रिक भावनाओं को दूषित करता है जो सदैव बहस का मुद्दा बना रहेगा परन्तु अविष्कारों और कुछ अलग हटकर करने की इस युग में बालासाहेब की राजनीती का यह सूत्र काबिल-ए तारीफ है। हमारे देश में राजनीती को तो लोग सदैब हीन दृष्टिकोण से देखते आयें है लेकिन लोकतंत्र में भले ही राजा का चयन जनता करती है पर राज करने के लिए नीति तो अपनानी ही होगी और यही राजनीती किसी के लिए गन्दी,अहितकारी होगी तो किसी के लिए अच्छी,हितकारी भी। भाषा के लिहाज से मुंबई की स्थिति आज भी पूरी तरह से सार्वलौकिक ही है। आज भी मुंबई की कुल जनसंख्या में मराठी माणूस और गैर मराठी माणूस का अनुपात लगभग आधा आधा है। परन्तु 1960 के अपेक्षा मराठी माणूस का यह अनुपात काफी बेहतर है। मुंबई विरासत से ही विकसित है और शायद इसीलिए इसे मैक्सिमम सिटी भी  कहा जाता है। और बालासाहेब इस बात को बखूबी जानते थे की विकास की राजनीती से ज्यादा कारगर है मानुस से मराठी माणूस की सियासत और तभी राजनीती की लम्बी सफ़र तय की जा सकती है। श्री बालासाहेब ठाकरे की इसी दूरदर्शी सोच से मराठी मानुस राजनीती को इतनी उर्जा मिली जिसका असर 46 वर्षो तक रहा औरश्री बालासाहेब ठाकरे की अंतिम विदाई में शामिल लोगो की संख्या इस असीम उर्जा का प्रमाण है।

एक क्षेत्रीय पार्टी द्वारा विशुद्ध क्षेत्रीय राजनीती की यह एक मिसाल है। बालासाहेब की राजीनीति चिन्ह धनुष तीर से कटाछ  भरे जो भी तीर निकले उससे किसी परप्रांती के नुक्सान होने के वजाय ज्यादा फायदा मराठी माणूस की सियासत को हुआ और समय समय पर निकलने वाली ये कटाछ भरे तीर उनकी एक रणनीति का हिस्सा था ताकि मराठी माणूस और उससे जुडी सियासत को उर्जा मिलती रहे। उन्होंने क्षेत्रीयता के ऊपर कभी राष्ट्रीयता को हावी होने नहीं दिया परन्तु राष्ट्रीयता को क्षेत्रीयता की शक्ति का एहसास समय समय पर पुरे देश को कराते रहे। आप मेरे इस आलेख से चाहे जो मतलब निकाले या प्रतिक्रिया दे परन्तु बालासाहेब ने क्षेत्रीय पार्टी द्वारा विशुद्ध क्षेत्रीय राजनीती की जो अनूठी मिशाल पेश की है वो राजनीती के नुमाइंदों की स्मृति में हमेशा स्थापित रहेगा। आज हमारे देश में कई क्षेत्रीय पार्टियाँ क्षेत्रीय होने का दावा करती है पर आज विशुद्ध रूप से कोई भी पार्टी  क्षेत्रीय हितो के लिए कार्य नहीं कर रही है। अगर कोई पार्टी अपने आप को क्षेत्रीय पार्टी मानती है तो उसे समर्पित होकर क्षेत्रीय हितो के लिए कार्य करना भी चाहिए। क्षेत्रीय मुद्दों की पहचान कर और फिर उसके उत्थान के दृढ संकल्प के साथ उसे आगे भी ले जाना चाहिए। लेकिन आज तो हर पार्टी के पास रेडीमेड मुद्दा है और होटल के मेन्यू के तरह हर दिन परिवर्तित होता रहता है। पहले क्षेत्रीय पार्टियाँ क्षेत्रीय होने की प्रपंची दावे के साथ जनमत हासिल करती है और जनमत मिलते ही उनका ध्यान लालकिले की ओर चला जाता है। आम जनता फिर अपने आप को ठगा महसूस कर दिल्ली के छोले भठूरे को पांच साल तक खाने को मजबूर हो जाती है। अब तो रेडीमेड मुद्दा का सरकारीकरण भी हो गया है जब चाहिए RTI के जरिये मुद्दे निकालिए और हर रोज मीडिया के जरिये सिर फट्व्वल कीजिये और केला गणराज्य के मैंगो मैन को उल्लू बनाते रहिये। ठोस मुद्दे किसी के पास नहीं है पर राजनीती करनी है और इसके लिए पांच साल तक मैं अच्छा और तू बुरा में पुरे देश को उलझा कर रखना से अच्छा उपाय क्या हो सकता है? अगर बालासाहेब ने मराठी माणूस और मराठी भाषा के आधार पर विभाजन की राजनीती की तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है,हमारे देश में राजनितिक पार्टियां चाहे वह जिस दर्जे की हो उनके पास आज जो भी मुद्दे है वे सभी किसी न किसी रूप से विभाजन के सूत्र पर ही केन्द्रित है फिर वह चाहे धर्म का हो या जाती का हो या फिर भाषा का हो? जातियों और अल्पसंख्यको में आरक्षण इस बात के साक्ष्य है और विभाजन तो विभाजन ही माना जाएगा चाहे उसकी शक्ल कैसी  भी हो?

मुद्दे को पहचानकर राजनीती करने से ही क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दोनों लक्ष्य प्राप्त किये जा सकेंगे नहीं तो विकास की डूगडुगिया संगीतमय होने के बाबजूद सुननेवाला कोई नहीं होगा,शहर में ऊँचे ऊँचे माल तो होंगे पर खरीदार नहीं होगा ?अपने प्रान्त के अवाम का नाम ऊँचा कैसे हो इसकी राजनीती होनी चाहिए और इसके लिए बालासाहेब की राजनीती से सिख ले,मुद्दे स्वतः ही दिखने लगेंगे! मैं भी परप्रांती हूँ और परप्रांती संबोधित होने से दुखी होता हूँ पर मेरा ये क्षोभ उन क्षेत्रीय पार्टियों के लिए है जो क्षेत्रीय वस्त्र पहन कर राष्ट्रीय धुन पर थिरक रहे है जिनको टीवी,टेबलेट,इन्डक्शन कूकर और विशेष राज्य के दर्जे के अतिरिक्त आम नागरिक से जुड़ा और कोई मुद्दा दिखाई नहीं देता? इन राजीनीतिक नुमाइंदों को या तो सोच की लिबास बदलनी होगी या फिर थिरकने वाले धुन? दोमुही राजनीती देखकर दम घुंटने लगा है अब
...

Saturday, November 17, 2012

अतुल्य भारत की अतुल्य प्राथमिक शिक्षा








'न्यू हैल्थवे , केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) स्कूल की वही पाठ्यपुस्तक है जिसको लेकर आजकल गंभीर विवाद चल रहा है।यह किताब कक्षा छह की पाठयक्रम में शामिल है। इस पाठ्यपुस्तक 'न्यू हैल्थवे : हैल्थ,हाईजीन,फिजियोलॉजी,सेफ्टी,सेक्स एजुकेशन,गेम्स और एक्सरसाइज है' के अनुसार  मांसाहारी लोग आसानी से धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं,वादे भूल जाते हैं,बेईमान होते हैं,चोरी करते हैं,झगड़ते हैं,हिंसक हो जाते हैं और यौन अपराध करते हैं  अतुल्य भारत में आजकल बच्चो को यही शिक्षित किया जा रहा है?

आचार्य चाणक्य ने कहा था दीपक तमको खात है, तो कज्जल उपजाय। अन्न जैसे ही खाय जो, तैसे हि सन्तति पाय। चाणक्य ने इस दोहे में बताया है कि जिस प्रकार दीपक तम यानी अंधेरे को खाता है और काजल पैदा करता है, ठीक इसी प्रकार इंसान भी जैसा अन्न खाता है उसका स्वभाव और संस्कार भी वैसे ही हो जाते हैं। यह उस वक़्त कहा गया था जब लोग अज्ञानता के युग में जी रहे थे और तब लोगो को संतुलित और असंतुलित आहार का बोध नहीं के बराबर था। इतिहास गवाह है की आचार्य चाणक्य के समय लोगो में अराजकता ज्यादा थी,सुखी एक और दुखी लाखो का अनुपात था,शिक्षित एक और अशिक्षित लाखो का अनुपात था। सफलता के एक ही उपाय थे युद्ध और जिसके कारण आये दिन युद्ध हुआ करता था। उग्रवादी सोच और विशाल आर्थिक और सामाजिक विषमता के बारे में लोगों को शिक्षित करने के माध्यम उपलब्ध नहीं थे और इस स्थिति में उस समय के वैज्ञानिक दर्शन के मुताबिक,लोगो की उग्रवादी सोच को नियंत्रित करने के लिए आचार्य चाणक्य जैसे महान व्यक्ति के पास इस तरह के परामर्श देने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रहा होगा।

मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की तुष्टि करने के साथ साथ उसका विकास और रूपांतरण भी करता है। आज हमारी आवश्यकताएं हमारे पूर्वजो से भिन्न है इसी तरह हमारे पूर्वजों की आवश्यकताएं भी उनके वंशजों से अवश्य भिन्न रही होंगी। मनुष्य की आदतों और आवश्यकताओं का सामाजिक स्वरुप भी होता है और व्यक्तिगत स्वरुप भी। परन्तु हम क्या कर रहे है?- इस तरह के पाठ्यपुस्तक के माध्यम से जबरन इतिहास को वर्त्तमान के रूप में थोप कर ज्ञान का दायरा घटा रहे? हमलोग अपनी बचपन की प्रसिद्ध सीख 'पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब और खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब' अब नयी पीढ़ी को नहीं देना चाहते - क्यों? क्योंकि हम अब जान गए हैं की खेलने कूदने या व्यायाम से न केवल बच्चों की बल्कि बड़ों की बुध्दि और स्मरणशक्ति भी बढ़ती है। और इसके साथ साथ अब खेल-कूद में भविष्य भी है।

शिक्षा का प्रमुख कार्य मनुष्य को उसके वास्तविक रूप में मनुष्य बनाना है। एवं प्राथमिक शिक्षा का व्यक्ति के जीवन में वही स्थान है जो मां का है। यह मनुष्य के जीवन की वह अवस्था है जो संपूर्ण जीवन विकास क्रम को गति प्रदान करती है। इस उम्र की शिक्षा जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा होती है। प्राथमिक शिक्षा बच्चों के शारीरिक, मांसपेशीय,संज्ञानात्मक,बौध्दिक,सृजनात्मक,अभिव्यक्ति और सौंदर्यबोध का विकास के लिए खाद के जैसा कार्य करती है। बच्चे के विकास पर सामाजिक प्रभाव के सक्रिय वाहकों की भूमिका व्यस्क अदा करते है। वे स्वीकृत सामाजिक संरुपों के दायरे में उसके व्यवहार तथा सक्रियता का संगठन करते है।बच्चो की व्यवहार का मनुष्यों के सामाजिक अनुभव के आत्मसात्करण की ओर सक्रिय अभिमुखन ही शिक्षण कहलाता है और इनसे उत्पन्न प्रभावों से ही चरित्र निर्माण होता है। शिक्षा की प्रक्रिया में बालक एक पौधे के सामान होता है। शिक्षक और पाठ्यपुस्तक इस इस पौधे का समुचित विकास करने वाला माली है। पौधे के विकास के लिए खाद,हवा,मिट्टी और रौशनी की आवश्यकता होती है और माली का काम पौधे के विकास के लिए इन उपर्युक्त आवश्यक तत्वों का उपलब्ध कराना है। जब माली ही खोखला होगा को वो पौधे का क्या समुचित विकास कर पायेगा? 'न्यू हैल्थवे - पाठ्यपुस्तक के माध्यम से जो ज्ञान,आदते या कौशल सिखाये जा रहे है क्या वो प्राथमिक शिक्षा के नाम पर कलंक नहीं है? ये बड़ी आश्चर्य की बात है यह पाठ्यपुस्तक काफी समय से इस्तेमाल की जा रही है लेकिन किसी ने पाठ्यक्रम के शुरुआत में ही इस पर प्रश्न क्यों नहीं उठाया? ये इस बात का सूचक है की पाठ्यपुस्तक की गुणवत्ता के साथ साथ शिक्षको की भी गुणवत्ता आजकल कितनी गिर चुकी है? शिक्षा मानव विकास की प्रक्रिया है और यह विकास की प्रक्रिया दो कारको पर निर्भर होती है - सीखना और परिपक्वता.अगर सिखने की सामग्री और प्रक्रिया इतनी तुच्छ एवं निरर्थक होगी तो परिपक्वता कितनी शक्तिशाली होगी इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। क्या इस तरह के शिक्षाप्रणाली से मानव-विकास के लक्ष्य की प्राप्ति संभव है?

सीबीएसई कह रही है कि वह आठवीं के बाद की कक्षाओं के लिए पुस्तकों का निर्घारण करती हैं और इसके पहले की कक्षाओं की जिम्मेदारी उनकी नहीं है। वहीँ देश की शीर्ष शैक्षिक निकाय एनसीईआरटी अभी तक चुप है। एनसीईआरटी की कई गतिविधियों में से एक है कक्षा एक से लेकर कक्षा वारहवी तक की अलग अलग विषयों की पाठ्यपुस्तक प्रकाशित करनाअगर ये सरकारी संस्थाए निजी स्कूलों का संबंधन करती है तो पाठ्यपुस्तक की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से ये कैसे पल्ला झाड़ सकते है? क्या बेलगाम होती शिक्षा प्रणाली पर नकेल कसना इनकी जिम्मेदारी नहीं है?

Thursday, November 15, 2012

एक प्रेमी ये भी...बालासाहेब केशव ठाकरे

प्रत्येक मनुष्य जीवन में किसी न किसी से प्रेम तो करता ही है लेकिन प्रेम में जब समर्पण की भावना जुड़ जाती है तब एक शक्ति का निर्माण होता है और इस शक्ति के जरिये मनुष्य किसी को भी अपना बना सकता है। कोई भी इंसान अपने जीवन में यूं ही सफल नहीं हो जाता। सफलता की कहानी बहुत लंबी और मुश्किलों से भरी होती है। बालासाहेब केशव ठाकरे की मुश्किलों भरी जिंदगी और सफलता की कहानी के पछे का जो सत्य है वो है मुंबई,महाराष्ट्र प्रेम। 23 जनवरी 1926 को मध्यप्रदेश के बालाघाट में जन्में बाल ठाकरे ने अपना करियर फ्री प्रेस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट शुरु किया था. इसके बाद उन्होंने 1960 में अपने भाई के साथ एक कार्टून साप्ताहिक 'मार्मिक' की भी शुरुआत की. मोटे तौर पर बालासाहेब ने अपने पिता केशव सीताराम ठाकरे के  महाराष्ट्र के एक अलग भाषाई राज्य के निर्माण की संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के राजनीतिक दर्शन का ही अनुसरण किया.अपने कार्टून साप्ताहिक 'मार्मिक' के माध्यम से, वह गुजराती, मारवाड़ी एवं दक्षिण भारतीय के मुंबई में बढ़ते प्रभाव के खिलाफ अभियान चलाया. अंततः 1966 में ठाकरे ने शिवसेना पार्टी का गठन मराठीओ के लिए मुंबई के राजनीतिक और व्यावसायिक परिदृश्य में जगह सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया। बाल ठाकरे स्वयं को एक कट्टर हिंदूवादी और मराठी नेता के रूप में प्रचारित कर महाराष्ट्र के लोगों के हितैषी के रूप में अपने को सामने रखते रहे हैं और इनकी इसी छवि के लिए ये हिन्दु हृदय सम्राट के नाम से भी जाने जाते है। बालासाहेब ने राजनीती में जो भी चाल चली उसकी एक ही केन्द्रबिदु रही है और वह है मुंबई,महाराष्ट्र प्रेम। यही वह मोह है जिसके कारण बाल ठाकरे ने बाहर से आकर मुंबई बसने वाले लोगों पर कटाक्ष करते हुए महाराष्ट्र को सिर्फ मराठियों का कहकर संबोधित किया और खासतौर पर दक्षिण भारतीय,बिहार और उत्तर प्रदेश से मुंबई पलायन करने वाले लोगों को मराठियों के लिए खतरा बता,बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र के लोगों को उनके साथ सहयोग न करने की सलाह दी.बालासाहेब की मुंबई और महाराष्ट्र प्रेम और उनके विवादस्पद वयान ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाई। उनकी हर एक चाल में एक और विशिष्ट छवि स्वजातीय उत्कृष्टता में विश्वास रखना भी दिखती आई है और उनकी इसी सोच ने उन्हें हिंदूवादी नेता से बहुत हद तक प्रांतवाद एवं भाषावाद की राजनीती तक सिमित कर रख दिया। बालासाहेब की मुंबई और महाराष्ट्र प्रेम ने राजनीती का एक अलग सूत्र प्रांतवाद एवं भाषावाद की राजनीती का भी आविष्कार किया.यह बेशक लोकतान्त्रिक भावनाओं को दूषित करता है जो बहस का मुद्दा बना रहेगा परन्तु अविष्कारों के इस युग में बालासाहेब की राजनीती का यह सूत्र काबिल-ए तारीफ है। हमारे देश में राजनीती को तो लोग सदैब हीन दृष्टिकोण से देखते आयें है लेकिन लोकतंत्र में भले ही राजा का चयन जनता करती है पर राज करने के लिए नीति तो अपनानी ही होगी और यही राजनीती किसी के लिए गन्दी,अहितकारी होगी तो किसी के लिए अच्छी,हितकारी भी। जब कोई किसी प्रेमी के प्रेम पर संदेह करता है और उस प्रेमी को अपना प्रेम साबित करना है तो निश्चित तौर पे यह एक भारी बोझ बन जाता है और जो कुछ भी आप करते है,उसकी व्याख्या देना एक पीड़ादायक बोझ होता है.संशय और प्रश्नवाचक रुपी यही परिस्थिति आपको नासाज़ प्रतीत होने लगती है और परिणामस्वरूप यही एक दूरी पैदा करती है,एक विकृति पैदा करती है,एक घृणा पैदा करती है और इसी प्रीत की हठ का परिणाम है बालासाहेब की भाषावाद एवं प्रांतवाद की राजनिति। बालासाहेब शायद देश की राजनितिक हताशा,असुरक्षित सामाजिक परिवेश और मुंबई की व्यवसायिक हैसियत को अच्छी तरह समझते थे और पूरी दुनिया को अपनी इस समझ यानि हिंदुत्व,भाषावाद एवं प्रांतवाद मिश्रित राजनिति से बखूबी अवगत कराया। प्रेम हरी को रूप है त्यों हरी प्रेम स्वरूप। प्रेम हरि का स्वरूप है,इसलिए जहां प्रेम है,वहीं ईश्वर साक्षात रूप में विद्यमान हैं।बिना कोई राजनितिक पद के हमेशा सिंघासन पे विराजमान रहने वाले बालासाहेब ने मुंबई,महाराष्ट्र से अगाध प्रेम के जरिये पूरी दुनिया को अपना मुरीद बना लिया। माइकल जैक्सन से लेकर अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर तक। क्षेत्रीय स्तर पर राजनीति कर राष्ट्रीय हैसियत हासिल करना कोई आम बात नहीं है और बालासाहेब की मुंबई,महाराष्ट्र से अगाध प्रेम की इसी पराकाष्ठा ने मराठी राजनीती में बाल ठाकरे की सख्सियत को अमर कर दिया। जीवन में ज्ञान और प्रेरणा कहीं से भी एवं किसी से भी मिल सकती है और बालासाहेब की मुंबई,महाराष्ट्र से अगाध प्रेम की राजनीति भी कम प्रेरणादायक नहीं है.बिना कुर्सी या पद की अभिलाषा की राजनीती अगर सीखनी है तो बालासाहेब से सीखे।ये वही राजनीती है जिसने आज भी पूरी मुंबई को एक धागे में पिरोकर रखा है। क्या ख़ास और क्या आम,आज सभी मातोश्री में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को आतुर है। हम श्री बालासाहेब ठाकरे की सेहत के लिए प्रार्थना करते हैं कि वो जल्द से जल्द ठीक हो जाएं।

Wednesday, November 14, 2012

ये रिश्तेदारी,ये दोस्ती-यारी

ये रिश्तेदारी,ये दोस्ती-यारी,
कोई माँ,कोई बाप,
कोई बहन,कोई भाई
कोई बेटा तो कोई बेटी पराई
कोई सखा,कोई सहकर्मी
कोई पिया तो कोई प्रीत पराई
बस वक़्त की जुडती कड़ियाँ है
लम्हों की रंगीन फुलझड़ियाँ है
प्रीत की लौ से दमकती है
वर्ना सुलगाये नहीं सुलगती
वक़्त की बढती पैठ
किसी छलावे से कम नहीं
वक़्त से वक़्त की जुडती पारी
नूतन से पुरातन,किसी बहलावे से कम नहीं
ये रिश्तेदारी,ये दोस्ती-यारी,
बस वक़्त की जुडती कड़ियाँ है
लम्हों की रंगीन फुलझड़ियाँ है
रिश्ते से रिश्तों की गुमां
है स्तम्भ तब तक जवां
बोलते जब तक एक दुसरे की जुबाँ
ये रिश्तेदारी,ये दोस्ती-यारी,
बस वक़्त की जुडती कड़ियाँ है
लम्हों की रंगीन फुलझड़ियाँ है
कई दिवाली बीत गयी और कई आनी वाली है
बदला कुछ भी नहीं
देवता वही,आस्था भी वही
बस बदले तो दीये जलाने वाले है
उत्सव का ये मौसम हमसे बिछड़ने वाला है
विदाई और स्वागत का गवाह बनने वाला है
2012,अब 2013 हो जायेगा
समय फिर समयसीमा बनाएगा
बीते और बर्तमान के इस डोर में
वक्त की कई और कड़ियाँ जुड़ता जायेगा
ये रिश्तेदारी,ये दोस्ती-यारी,और कुछ नहीं
बस वक़्त की जुडती कड़ियाँ है
लम्हों की रंगीन फुलझड़ियाँ है
प्रीत की लौ से दमकती है
वर्ना सुलगाये नहीं सुलगती..:-)


[ आप सभी को भाई बहन के रिश्तो का पावन त्यौहार भाई दूज की हार्दिक शुभकामनाएँ!!! ]

Friday, November 9, 2012

श्री कृष्ण की राधा अब संसद में भी

फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर के एक गीत 'राधा..' का मुद्दा अब संसद में गूंजेगा। विवाद का मुख्य कारण गाने में राधा के लिए 'सेक्सी' शब्द है। ये समझ में नहीं आ रहा है की क्या गाने में राधा के लिए 'सेक्सी' शब्द का मुद्दा हिंदुत्व की गरिमा को बचाने के लिए उठाया जा रहा है या इस तरह के भावनात्मक मुद्दों से आगामी चुनाव के लिए हिन्दुवादी चरमपंथ सोच की नव्ज टटोलने की कोशिश की जा रही है? क्योंकि हिंदुत्व और भाषाओ/शब्दों की विविधताएँ दो अलग विषय है और इनको अलग अलग एवं खंडित ऐनक के जरिये देखना अपने आप और पुरे हिन्दू समाज को गुमराह करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है? हिंदुत्व के इन्ही ठेकेदारों ने जहां फिल्म में राधा को सेक्सी बताने के मुद्दे को संसद में उठाने की तैयारी कर रही है, वहीं उनके ही सांसद राम जेठमलानी ने भगवान राम के बारे में कहा कि भगवान राम एक बेहद बुरे पति थे।मैं उन्हें बिल्कुल ...बिल्कुल पसंद नहीं करता। कोई मछुवारों के कहने पर अपनी पत्नी को वनवास कैसे दे सकता है।लक्ष्मण तो और बुरे थे। लक्ष्मण की निगरानी में ही सीता का अपहरण हुआ और जब राम ने उन्हें सीता को ढूंढने के लिए कहा तो उन्होंने यह कहते हुए बहाना बना लिया कि वह उनकी भाभी थीं। उन्होंने कभी उनका चेहरा नहीं देखा, इसलिए वह उन्हें पहचान नहीं पाएंगे।

हिन्दू धर्म की एक अति महत्वपूर्ण स्तम्भ भगवान श्री राम जिनके आदर्श हिन्दू धर्म के दीप को सदैब प्रज्ज्वलित रखता है, आज हिन्दू धर्म की रोटी सेंक हिंदुत्व के गरिमा की रक्षक होने का दावा करने वाली सेना ही भगवान श्री राम को हिन्दू धर्म का एक बेहद बुरा किरदार मानती है। धर्म के बारे में लोगो की अलग अलग विचार हो सकती है परन्तु हिन्दू धर्म के रक्षको द्वारा ही इस तरह का सार्वजानिक बयान हिन्दू धर्म
के बजूद के ऊपर एक तीखा प्रहार है? यह समस्त हिन्दू धर्म के अनुयायियों को कलंकित करता है? दीपावली पर्व भी भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या वापस आने और असत्य पर सत्य की विजय का जश्न है और माननीय सांसद श्री राम जेठमलानी और उनके सहकर्मियों द्वारा उल्लेखित भगवान राम के चरित्र को देखते हुए हिन्दु-स्थान में दीपावली पर्व प्रतिबंधित हो जानी चाहिए? हिन्दु-स्थान में हिन्दू धर्म की ये दुर्दशा देखकर आर्यावर्त की गरिमामयी इतिहास भी आज फूट फूट कर रो रही होगी और ये बोलती होगा की सत्ता और लोकप्रियता के लोभियों से भरे इस आर्यावर्त गणराज्य ने आज हिन्दू धर्म को ही सरेआम नीलाम करने को आतुर है? अगर आन्दोलन करना है तो इन पर करे जिसकी वजह से हिन्दू धर्म की गरिमा तार तार हुई है? पर हम लोकतंत्र रुपी दुनिया में जी रहे है और यहाँ अभिव्यक्ति की आजादी हर ख़ास ओ आम को है हाँ ये बात दीगर है इस अधिकार के मायने क्या होनी चाहिए-इस आजादी का सदुपयोग जनकल्याण के लिए करना या बर्बादी की बुनियाद मजबूत करना? 

आज राधा के नाम पर हिन्दू राजनीती के लिए सस्ती लोकप्रियता को व्यग्र मनुष्यों की यही प्रजाति होगी जिन्होंने प्राचीन काल में दीनहीन की यह परिभाषा‘शूद्र,गंवार,ढोल,पशु,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी’ तय की होगी। पुरुषो की इसी प्रजातियों से उत्पन्न हुए अनेक महाकवियों की रचनाएँ पढेंगे तो आपको इन रचनाओं में स्त्रियों को श्रृंगार रस की प्रमुख नायिका के तौर पर एक व्याख्यात्मक निबंध मात्र दिखाई देगा ? स्पष्ट रूप से अगर ये कहें की इन कवियों की रचनाओ का सूत्र नारी,रूप,श्रृंगार एवं कवि यानी कविता ही रहा है,बिलकुल गलत नहीं होगा। इतिहास गवाह है की इंसानों ने नारी को हमेशा संयोग श्रृंगार,विप्रलंभ श्रृंगार की कठपुतली के तौर पर प्रदर्शित करता आया है। आज के युग और इतिहास में वर्णित रचनाओं में सिर्फ यही अंतर है की आज नारी मोह वजहों और उससे होने वाले लाभ से प्रेरित हो उमड़ता है और प्राचीन काल के महाकवियों ने साहसपूर्वक इसको धर्म से जोड़कर ग्रंथो की शोभा बढाया? राधा और कृष्ण प्रेम की पराकाष्ठा है। राधा भाव किसी भी प्रेम से सर्वोच्च है,राधा भाव एक ऐसी स्थिति है जहाँ ये मालूम करना मुश्किल है की कौन कृष्ण है और कौन राधा! राधा की गरिमा किसी आन्दोलन की मोहताज नहीं है। प्रेम के इस विशाल रूप को एक शब्द के जरिये मापना राधा की गरिमा के साथ साथ श्री कृष्ण भी का अपमान है? हाँ आज के आधुनिक युग की लोकतंत्र प्रणाली की असली मंदिर तो संसद ही है और हमारे वास्तविक मंदिरों के देवताओं की विरासत बिना आधुनिक युग के लोकतंत्र की मंदिर-संसद में परिचय के कैसे बरक़रार रखी जा सकती? राजनितिक त्रिया चरित्र से कामासक्त इन योगियों के अनर्थक,निराधार राधान्दोलन की अभिलाषा से राधा नाम,राधा भाव,हिन्दू धर्म एवं हिन्दु-स्थान के समस्त स्थानीय निवासी को शर्मशार किया है?

आप सभी को दीपावली की अग्रिम बधाई..शुभकामनाएं..मंगलकामनाएं ! जय श्री कृष्ण!!



Tuesday, November 6, 2012

अमेरिकी नागरिको ने अमेरिका को जिताया

अमेरिकी नागरिको ने अमेरिका को जिताया
बराक ओबामा के रूप में पुनः अपना राष्ट्रपति बनाया
मुद्दे वहां भी थे कठिन और गंभीर
गिरती अर्थव्यवस्था और वेरोजगारी
पर अपनी देश की हस्ती को ही अपना राहगीर बनाया
अपने घर की समस्या तो अपनी समस्या है
पर राष्ट्रहित कैसे हो सकता पराया
रंगभेद शब्द है उन्ही  का
और उन्ही लोगो ने इसका मिसाल है बनाया
ऊँचा रहे अमेरिका का नाम पुरे ब्रह्माण्ड में
इस चुनाव में सुनिश्चित कर दिखाया
समस्याएं है तो क्या, देख लेंगे
पर खबरदार, जो किसी ने मेरी हस्ती पे आँख दिखाया
अमेरिकी नागरिको ने अमेरिका को जिताया 
बराक ओबामा के रूप में पुनः अपना राष्ट्रपति बनाया..:-)


श्री कृष्ण की राधा अब न्यायालय में

आज कल करण जौहर की हाल ही में रिलीज फिल्म स्टूडेंट ऑफ द ईयर के एक गीत 'राधा..' को लेकर खूब विवाद चल रहा है। विवाद का मुख्य कारण गाने में एक जगह राधा के लिए 'सेक्सी' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। हिंदू जनजागृति समिति नामक एक संस्था ने सेंसर बोर्ड से इस फिल्म को प्रतिबंधित करने की मांग की है। इस संस्था का कहना है कि फिल्म के गीत में राधा के लिए सेक्सी शब्द इस्तेमाल करना तमाम हिंदुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है और इससे उन तमाम लोगों की भावनाएं आहत होती हैं जो कृष्ण और राधा की पूजा करते हैं। हमारे देश की तमाम मीडिया भी इस मुद्दे पर संवेदनशील दिख रही है और कुछ तो लाइव बहस भी करा रहे है। लोकतंत्र में नागरिको को अभिव्यक्ति की आजादी अत्याचार,शोषण और अन्याय इत्यादि के मद्देनजर दिए गए है। हमारे देश में हिन्दू धर्म के नाम पर कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह एक संस्था स्थापित कर स्वयं से ही हिन्दू धर्म के रक्षक और ठेकेदार मान सकता है। सबसे पहले क्या यह हिंदुत्व/हिन्दू धर्म के स्वास्थ्य के लिए सही है? ये संस्था हिंदू जनजागृति समिति हिंदुत्व या हिन्दू धर्मं के लिए ऐसा क्या कार्य किया है जिससे ये समझा जा सके की ये हिन्दू धर्म के हितो एवं उत्थान के लिए ही कार्य करती? कौन कहता है की 'सेक्सी' शब्द का मतलब सिर्फ और सिर्फ अश्लील होता है? कौन कहता है की जहाँ जहाँ भी 'सेक्सी' शब्द का उपयोग होता है वह सिर्फ और सिर्फ अश्लीलता परोसने के लिए ही होता है? आधुनिकता ने लोगो को बहुत कुछ शिक्षित किया है और उनमे से एक है बहुभाषी होना और वैसे भी ज्यादातर भारतीय अपने मूल भाषा के अतिरिक्त अंग्रेजी तो जानते ही है। अगर 'सेक्सी' शब्द के सम्बन्ध में थोडा अतिरिक्त जानने की कोशिश करेंगे तो आप पाएंगे की अंग्रेजी में 'सेक्सी' शब्द का उपयोग आकर्षक के लिए भी किया जाता है। 'सेक्सी' शब्द का मतलब आकर्षक भी होता है तो इससे ना ही हिन्दू धर्म की कोई क्षति होती है और न ही राधा की गरिमा की। ये क्यों भूल गए की श्री कृष्ण लीला में यह वर्णित है...यशोमती मैया से बोले नंदलाला राधा क्यूं  गोरी मैं क्यूँ काला !!! श्री कृष्ण राधा के लिए यह क्यों बोलते है? हमारे देश में भाषाओँ की राजनीती तो विरासत में है ही और अगर अब इसमें शब्दों की राजनीती भी शामिल हो गयी तो इससे प्रांतवाद/भाषावाद रुपी कुंठित राजनीती को और उर्जा मिलेगी जो न किसी धर्म के लिए हितकारी होगी और ना ही किसी समाज के लिए। आइये हाल ही में रिलीज फिल्म राउडी राठोर का एक गीत आ रे प्रीतम प्यारे,सब आग तो मेरे चोली में रे,पल्लू के नीचे  छुपा  के रखा हूँ,उठा दूं तो हंगामा हो पे जरा गौर करते है और धर्म के इन ठेकेदारों से सवाल करते है...क्या यह गीत मानवीय धर्म के लिए अश्लीलता नहीं परोसता? क्या यह गीत अपरोक्ष रूप में नारीवाद पे अघात नहीं है? ऐसा मालूम पड़ता है की अभिव्यक्ति की आजादी का अब जनसशक्तिकरण से कोई सम्बन्ध नहीं रहा।आवाज़ उठानी है तो कुछ ऐसे मुद्दे पे उठाये जिससे समाज की हस्ती बढे,जनकल्याण की स्तम्भ मजबूत हो? अगर इन तुच्छ मुद्दों पे आवाज़ उठनी शुरू हो गयी तो जिंदगी उबाऊ प्रतीत होने लगेगी? सच तो यह है की हमारे देश में बोलने की आजादी का कुछ ज्यादा ही उपयोग हो रहा है जिसका लाभ सिर्फ और सिर्फ बेकिंग न्यूज़ को व्यग्र मीडिया उठा रही है। राजनीती,भ्रस्टाचार एवं धर्म के समक्ष आम लोग की समस्याए तो बस दफ्न  होकर रह गयी है। लोकप्रियता या राजनीती के लिए धर्म या इश्वर का भावनात्मक दुरूपयोग नहीं होना चाहिए और अगर ऐसा हो भी तो इस पर कोई तबज्जो नहीं दिया जाना चाहिए। मामले की सुनवाई न्यायलय में लंबित है और माननीय न्यायाधीशगण भी 'सेक्सी' शब्द के अर्थ पे ही मथापच्ची करने वाले है जिस तरह हम इस आलेख में कर रहे है। हिन्दू धर्म में अतिशयवादी के लिए कोई जगह नहीं है। यह मैं नहीं, हमारे धर्मग्रन्थ बोलते है। जय श्री कृष्ण!!

Sunday, November 4, 2012

आग का दरिया है और डूब के जाना है

आग का दरिया है और डूब के जाना है
क्या पता जिंदगी की पहेली का हल मिल जाए
क्या पता कोई सपनो का महल मिल जाए
कालिख के निशां मानते है अशुभ
पर गालो के काले तील को अदा ए हुश्न
शब्दों की कारीगरी कही जिंदगी की मालगुजारी तो नहीं
क्यों लम्हे हम लम्हों के दरमियान ढूंढते  है
मोहब्बत अब मुहब्ब्त बन गयी है
और मोहब्बत करने वाले इशकजादे
मीरा,राधा अब इश्कीया हो चली
फिर भी कृष्ण की लीला पूजते है
यह कलयुग नहीं कलायुग है
क्योंकी रातो में ही सुकून के निशाँ ढूंढते है
तेज और तेज भागने की होड़ में सभी यहाँ
अगर ये होता तो क्या होता
अगर ये हुआ तो क्या होगा
इन जुगलबंदियों में मशरूफ इस तरह दीखते है
मानो कर्म, कर्म नहीं अपराध हो
जिंदगी,जिंदगी नहीं एक मियाद हो
अगर ऐसा है तो जी ले इस मियाद को
प्रेम से,सौहार्द से क्योंकि
क्या पता जिंदगी की पहेली का हल मिल जाए
क्या पता कोई सपनो का महल मिल जाए
शुभ रात्रि ..:-)

Thursday, November 1, 2012

इस देश का यारों क्या कहना

ये दौर है घपला घोटालो का
अन्नाओं का केजरिवालो का
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ रहते है नेता मस्ती में
और आम आदमीं कड़की में
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ जनमत को कहते वोट बैंक
और जनता बनी है मैंगो मैन
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ करते सब दुर्गा की पूजा
पर नारी का बलात्कार और अत्याचार
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ हर व्यक्ति को चाहिए सिस्टम
पर सिस्टम ही है वैर का ठौर
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ गरीब पे रोटी हर कोई सेंकता  
पर देने के नाम पर हो हाहाकार
यहाँ मुद्दे चुनाव के होते भ्रस्टाचार
पर करते एक दुसरे से अभद्र व्यवहार
यहाँ मुद्दे चुनाव के होते विकास
पर कब.. मानो हो एक ख्वाब
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ कहते संसद को लोकतंत्र का मंदिर
पर करते वहां अश्लील व्यवहार,कुर्सियों से वार
यहाँ सब को चाहिए सुचना का अधिकार
क्योंकि करना जो है लोगो को गुमराह
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ केंद्रीय सरकार है विकेन्द्रित
और राज्य सरकार दिग्भ्रमित
क्योंकि थोपना है दोष बारम्बार,लगातार
यहाँ मीडिया नहीं एक ख़ुफ़िया है
 
क्योंकि करना जो है सब पर्दाफाश
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना
यहाँ रावन की बुराइयां सब को दिखती
पर करते नहीं राम के आदर्शो पे विचार
यहाँ भिक्षा देना है पुण्य का काम
इससे क्रूर क्या हो सकती मानवीय आधार
यहाँ इंसानियत के कई टुकड़े है
यहाँ वहां सब बिखरे है
इस देश का यारों होय
इस देश का यारों क्या कहना...

Tuesday, October 23, 2012

मां दुर्गा पूजा एवं दशहरा

हमारे देश में त्यौहारों का विशेष महत्व है.इनका जन-जीवन,रहन-सहन,संस्कृति एवं सामाजिक रीति रिवाज़ के साथ गहरा सम्बन्ध भी है.आज नौ दिनों से चल रहे शारदीय नवरात्र का नौवां दिन यानि महानवमी है.मां दुर्गा के नौ रूपों में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिधिदात्री की पूजा आराधना,प्रतिप्रदा से नवमी तक की जाती है. नौ शक्ति रूपों के पूजन के कारण ही इन दिनों को नवरात्र काल कहा गया है.नवरात्रि... नव का अर्थ नौ होता है तो रात्रि अर्थात रातें. ये नौ दिन शक्ति रूपा माता के नौ रूपों को समर्पित होते हैं एवं बुराई पर अच्छाई,अँधेरे पर उजाले तथा झूठ पर सत्य की विजय के प्रतीक माने जाते हैं.दशमी के दिन त्योहार की समाप्ति होती है.इस दिन को विजयादशमी कहते हैं और कल यानी इस मास के शुक्ल पक्ष दशमी तिथि (२४ अक्तूबर २०१२) को विजय पर्व दशहरा,विजयादशमी देश भर में धूमधाम के साथ मनाया जाएगा जिसमें बुराई,असत्य एवं अराजकता के प्रतीक माने जाने वाले रावण एवं उसके भाइयों के पुतले का दहन किया जाता है। इस दिन भगवान श्री राम ने राक्षस रावण का वध कर माता सीता को उसकी कैद से छुड़ाया था और सारा समाज भयमुक्त हुआ था.रावण को मारने से पूर्व भगवान श्री राम ने मां दुर्गा की आराधना की थी.मां दुर्गा ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्हें विजय का वरदान दिया था.

प्राचीन काल और आज के समय में कितना अंतर हो गया है.प्राचीन काल में बुरे व्यक्तियों की आसानी से पहचान की जा सकती थी.राक्षस,दैत्यों को ही ले लीजिये.उनके शरीर की संरचना,आकार,रंग,वेशभूषा से समझा जा सकता था की इनकी उत्पत्ति बुरे,असत्य कार्य एवं अराजकता के लिए हुई है और ये जो भी करेंगे बुरा ही करेंगे.परन्तु आज के समय में हम मनुष्यों में छुपे राक्षस को पहचानना कितना कठिन कार्य हो गया है.मानव उत्पत्ति की मुलभुत संरचना से साथ साथ विज्ञानं की प्रगति ने मनुष्य एवं राक्षस को एक समान शक्ल और शारीरिक संरचना के साथ एक कर दिया है.आज मनुष्य में छुपे राक्षस को समझने और पहचानने के लिए क्या क्या उपाय करने पड़ रहे है...नार्को टेस्ट,ब्रेन मैपिंग,पॉलीग्राफ(लाई -डिटेक्टर) इत्यादि इत्यादि,फिर भी हमारा समाज आज भयमुक्त नहीं है.संतान प्राप्ति के लिए शक्ति की अराधना तो करते है लेकिन पसंद की संतान नहीं हुई तो कोंख में ही उसकी हत्या कर देते है...यश प्राप्ति के लिए शक्ति की अराधना करते है लेकिन अपने बुजुर्ग  माता पिता को अकेले जीने को मजबूर कर देते है या फिर उनका भी शोषण करते है...रावण मे कितना ही राक्षसत्व क्यों न हो लेकिन उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं.रामायण में राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता". लेकिन आज शक्ति की अराधना करने वाले मनुष्य अपने परिवार,पास पड़ोस की ही आबरू लूटने को आतुर है.सरकारी आंकड़ो की माने तो महिलाओं से जुड़े समस्त आपराध में DOMESTIC VIOLENCE का लगभग ४०-५०% योगदान है? रावण अधर्मी इसलिए बना कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा...लेकिन आज का मनुष्य सर्वश्रेष्ठ अधर्मी बनने के लिए धर्म कर रहा है...धर्म की आड़ में मनुष्य मनुष्य की ही हत्याएं कर रहा है...अच्छाई और बुराई में फर्क महसूस करने का पर्व है दशहरा,बुराई पे अच्छाई की जीत का जश्न है विजयादशमी...शक्ति की अराधना है मां दुर्गा पूजा या नवरात्र ...मां दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं.यह शक्ति परम ब्रह्म की प्रतिरूप है.मां दुर्गा, मनुष्य जाति में कर्म-शक्ति तथा विविध पुरुषार्थ साधना को बल देती है.ब्रह्म से द्वेष रखने वाले नास्तिकों और असुरों का संहार करने के लिए ही परमेश्वर की शक्ति भगवती दुर्गा के रूप में जन्म देती है....लेकिन आज के परिवेश में अच्छाई और बुराई,कर्म-शक्ति या विविध पुरुषार्थ का पैमाना सिर्फ चाणक्य नीति है ना की रामायण की सीख,भगवान् श्री राम एवं रावण के आदर्श,उद्देश्य या मां दुर्गा की अराधना...रावण एवं उसके भाइयों के पुतले का दहन उसके कुकृत्यों के लिए किया जाता है उनके शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादाओं के लिए नहीं...रामायण में रावण एक ऐसा पात्र है, जो भगवान् श्री राम के उज्ज्वल चरित्र को उभारने का काम करता है...शास्त्रों के अनुसार रावण में अवगुण की अपेक्षा गुण अधिक थे...अगर रावण ना होता तो रामायण भी अधुरा रहता और विजयादशमी का जश्न भी...आज मनुष्य को भगवान् श्री राम के आदर्श के साथ साथ रावण से भी सीख लेने की जरूरत है क्योंकि उसमे भी अच्छाई और बुराई महसूस करने की ससक्त समझ थी,अपने जिम्मेदारियों के प्रति अथाह समर्पण थी और ज्ञान का समुद्र यानी महाज्ञानी भी माना जाता था...तभी तो रामायण में "भगवान् श्री राम रावण को देखते ही मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता"..किसी भी कृति में नायक द्वारा प्रतिनायक के लिए ऐसी प्रतिक्रिया प्रतिनायक की महानता को दर्शाता है...अच्छाई और बुराई में फर्क महसूस करने का मतलब अपनी नैतिकताओं को तराशना है,अपने मनुष्यत्व को समझना है ना की रावण की बुराइयों का सिर्फ विश्लेषण करना और तभी मां दुर्गा पूजा,विजयादशमी या दशहरा के सन्देश सही मायने में समाज में प्रवाहित हो पायेंगे...
आप सभी को मां दुर्गा पूजा एवं विजयादशमी की हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं...

Saturday, October 13, 2012

सूचना का अधिकार या व्यक्तिगत आक्रमण का हथियार?

मित्रों कल सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) की सातवी वर्षगाँठ थी.इस विशालकाय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को रोकने और समाप्त करने की दिशा में एक अति महत्वाकांछी कानून जो अपने उद्धेश्यों को पूरा करने की कसौटी पर कितना खरा उतर पाया है इसका आँकलन करना इस कानून से भी अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है.परन्तु अगर इस कानून की प्रतिष्ठा और प्रभावोत्पादकता को और ओजस्वी बनाना है तो सूचना का अधिकार अधिनियम कानून अपने कसौटी पर कितना खरा उतर पाया है इसका आँकलन करना अब अनिवार्य हो गया है? इस चर्चा को आगे बढाने से पहले एक बार फिर इस कानून के बारें में अपनी याद्दास्त को ताजादम कर लेते है...

सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) भारत सरकार द्वारा पारित एक कानून है जो 12 अक्तूबर, 2005 को लागू हुआ था .इस नियम के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को सरकारी रेकार्डों और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है.संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है. अनुच्छेद 19(1) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को बोलने व अभिव्यक्ति का अधिकार है. 1976 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा है कि लोग कह और अभिव्यक्त नहीं कर सकते जब तक कि वो न जानें.इसी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि भारत एक लोकतंत्र है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आम आदमी ही देश का असली मालिक होता है. इसलिए लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकारें जो उनकी सेवा के लिए हैं,क्या कर रहीं हैं?प्रत्येक नागरिक कर/ टैक्स देता है,यहाँ तक कि एक गली में भीख मांगने वाला भिखारी भी टैक्स देता है जब वो बाज़ार से साबुन खरीदता है(बिक्री कर, उत्पाद शुल्क आदि के रूप में).नागरिकों के पास इस प्रकार यह जानने का अधिकार है कि उनका धन किस प्रकार खर्च हो रहा है.

सूचना का अधिकार अधिनियम हर नागरिक को अधिकार देता है कि वह :-

* सरकार से कोई भी सवाल पूछ सके या कोई भी सूचना ले सके.
* किसी भी सरकारी दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रति ले सके.
* किसी भी सरकारी दस्तावेज की जांच कर सके.
* किसी भी सरकारी काम की जांच कर सके.
* किसी भी सरकारी काम में इस्तेमाल सामिग्री का प्रमाणित नमूना ले सके.


जनता इस कानून को किस तरीके से उपयोग करे एवं इस उपयोग से उनको उनके जीवन में कैसे फायदा हो ये गौर करने वाली बात है.अगर सूचना का अधिकार का यथोचित और रचनात्मक इस्तेमाल नहीं किया गया तो फिर यह एक निष्फल कानून बन जाएगा.सूचना का अधिकार और निजता के अधिकार के बीच अनिवार्य संतुलन बनाए रखना ही सूचना का अधिकार का समुचित उपयोग माना जाना चाहिए,क्योंकि निजता का अधिकार भी मानव जीवन की एक मौलिक अधिकार है.इस कानून का इस्तेमाल किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना करने और उन्हें नीचा दिखाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए.अब तक यह कानून भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में बिलकुल नाकाम रही है? मान लीजिये सूचना के अधिकार के तहत हमें जो सुचना चाहिए थी, प्राप्त हो गयी पर इस सुचना को न्यायतंत्र के साथ कैसे जोड़ा जाये जिससे व्यवस्था में सुधार हो सके और अपराधियों को दंड मिल सके, के लिए कोई सख्त मसविदा नहीं? सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त सूचना की सुरक्षा और गोपनीयता निर्धारित होनी चाहिए ताकि प्राप्त सूचना को अभिलाषित न्याय मिल सके जो की सात वर्षीय अनुभवी यह कानून प्राप्त सूचना की पारदर्शिता के साथ गोपनीयता बनाये रखने में विफल रहा है? अब तक यह कानून एक स्टिंग ऑपरेशन की तरह इस्तेमाल होता आया है,अब तक यह कानून मीडिया के जरिये प्रबंध किया जा रहा है,जो इस कानून की जवाबदेही लिए एक गंभीर खतरा है. आजकल इस कानून को व्यवस्था में सुधार के वजाए व्यक्तिगत हमले के लिए उपयोग किये जा रहे है और वह भी सिर्फ मीडिया के जरिये?मीडिया के लिए सूचना के अधिकार के जरिये प्राप्त सुचना उनके लिए मीडिया सामग्री मात्र है जिसका उपयोग दर्शकों की संख्या में वृद्धि के अलावा और कुछ नहीं माना जाना चाहिए.क्या सिर्फ मीडिया के जरिये इस अधिकार का उपयोग उचित है? यह कानून देश की जनता को सशक्त तो बनाता है परन्तु इसका हो रहे उपयोग का तरीका क्या इस सूचना का अधिकार अधिनियम को कमजोर और प्रभावहीन नहीं बना रहा है?जिस कानून को भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या रोकने और समाप्त करने का उत्तरदायित्व है उसका इतना तुच्छ एवं असंवेदनशील उपयोग निश्चित तौर पर इस कानून को अपने उद्धेश्यों को पूरा करने में बाधा पैदा करेगा?सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत सूचना प्राप्त करने के लिए जिस तरह मसविदा तैयार किया गया है ठीक उसी तरह सूचना प्राप्त होने के बाद इसके उपयोग और उपयोग के तरीके का भी सख्त मसविदा तैयार होना चाहिए ताकि इसके उपयोग और दुरूपयोग दोनों की संभावनाओं को समझकर न्यायतंत्र के साथ जोड़ा जा सके वर्ना यह कानून सिर्फ मीडिया प्रचार-साधन रह जाएगा.हिन्दुस्तान जैसे विशालकाय लोकतंत्र में सिर्फ कानून बनाने से नहीं चलेगा,कानून प्रभावशाली और इसके उद्देश्य कैसे पूरा हो, इसको सुनिश्चित करने की प्रणाली भी विकसित करने की आवश्यकता है...हमारे संबिधान में कानून तो हर अपराध के लिए है परन्तु अपराध कमने के वजाय,निरंतर बढ़ते ही जा रहे है? मतलब स्पष्ट है की सिर्फ नाम का कानून नहीं, एक प्रभावशाली एवं जिम्मेदार कानून की आवश्यकता है और तभी वांक्षित परिणाम प्राप्त हो सकेंगे....शुभ रात्रि...

Saturday, October 6, 2012

कामुक सब्सिडी

आजकल सब्सिडी के नाम पर पुरे देश में हंगामा मचा हुआ है.देश का प्रत्येक राजनीतिज्ञ सब्सिडी की सुन्दरता को अपने अपने तरीके से वयां करने में मशरूफ है.स्वतंत्रता के बाद जो भी सरकार सत्ता में आयी,सब्सिडी देती आ रही है.लेकिन सोचने बाली बात ये है की क्या सब्सिडी सच में गरीब जनता का बोझ कम कर रही है? आज तक हमारी सरकार गरीबो की परिभाषा या यूँ कहे हमारे देश की गरीबी तय नहीं कर पायी है तो फिर ये विशालकाय सब्सिडी किस मापदंड पर निर्धारित की जा जाती है.पेट्रोल,डीजल और अन्य संसाधन का दाम बढ़ाये जाने पर हर बार सरकार सब्सिडी के वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान का रोना रोती है और मूल्य वृद्धि को जायज ठहराती है.जहा तक सरकार का कहना है,पेट्रोल डीजल एवं अन्य प्रकृतिक संसाधन का लगभग 70-75% आयात करना पडता है और सरकार इन पर सब्सिडी देती है [सही है] ताकि गरीब जनता के उपर ज्यादा बोझ ना पड़े.परंतु जो आर्थिक सहायता या अनुदान सरकार गरीब जनता के नाम पर दे रही है जिसे सरकार सब्सिडी कहती है क्या उसका लाभ सचमुच मे गरीबो को ही मिल रहा है ? क्या संपन्न-अमीर लोग गरीब जनता के नाम पर सब्सिडी का लाभ नही ले रहे ? 

आज हमारे देश मे सवा अरब की जनता मे लगभग 35 से 45 करोड़ लोग संपन्न हैं,क्या इन्हे सब्सिडी जायज है ? सरकार अगर गरीबी नही तय कर सकती तो अमीरी तो तय कर सकती है? सरकारी आकड़ो के अनुसार सब्सिडी के ऊपर वर्ष 2006-07 में लगभग 57,125 करोड़ रुपये के मुकाबले वर्ष 2011 -12 यही लगभग 2.16 लाख करोड़ रुपये खर्च किये गए.अब जरा सोचिये सब्सिडी के वृद्धि के साथ महंगाई थोड़ी बहुत नियंत्रित रहनी चाहिए थी परन्तु महंगाई दिन ब दिन बढती ही जा रही है.मतलब यह बात तो स्पष्ट है की सब्सिडी पे निर्भर होकर महंगाई पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता? बाजार जो कीमत तय करती है उसपर सब्सिडी कोई सार्थक प्रभाव नहीं ड़ाल सकती है.तो फिर प्रश्न यह उठता है की इसका हल क्या है? हमारी राय में इसका हल है सब्सिडी की जरूरतों का वर्गीकरण करना जो कोई भी सरकार आज तक स्वीकार नहीं कर पायी है क्योंकी किसी ने सच ही कहा था,किसी झूठ को जोर से और बार-बार बोलो तो वह सत्य लगने लगता है.सब्सिडी भी भारतीय राजनीती में जनता के लिए वैसा ही सत्य लगने वाला झूठ है या यूँ कहे की सब्सिडी भारतीय राजनीती की रखैल है जो जब चाहे अपने लाभ के इस्तेमाल कर सकता है? भारतीय लोकतंत्र में राजनीती अगर व्यवसाय हो गया है तो सब्सिडी भारतीय राजनीती का प्रोडक्ट है और देश की हर राजनितिक पार्टियाँ सब्सिडी को अपने लाभ के लिए जनता के समक्ष अच्छी तरह से इसका विपणन करती आ रही है.चुनावी घोषणा पत्र क्या है,सब्सिडी के बदौलत ही तो जनता को रिझाये जाते है? कोई लैपटॉप देने का वायदा,कोई अनाधिकृत जमीन को अधिकृत करने का वायदा तो कोई अल्पसंख्यको के विकास के लिए अतिरिक्त पॅकेज का वायदा इत्यादि इत्यादि...देश की हर पार्टी अपने अपने प्रतियोगियों की तुलना में रचनात्मक चुनावी घोषणा पत्र के जरिये जनता को लुभाती है..कैसे?...अपनी वही रखैल(सब्सिडी) के बदौलत....कोई भी पार्टी आज तक राजकीय कोष का न्यायसंगत इस्तेमाल नहीं कर पायी है और न ही करने का इरादा रखती है...इस देश में राजनीती से जुडा हर सख्श  गरीब आदमी के नाम पर सब्सिडी का विपणन करने में लगा है...अगर सब्सिडी इतनी कारगर होती तो गरीबो की तादाद कम होनी चाहिए थी लेकिन संपन्न लोगो के मुकाबले गरीबों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती चली जा रही है? आजादी के ६५ वर्ष बाद भी हर राजनितिक पार्टी जन वितरण प्रणाली को दुरुश्त करने में नाकाम रही है,इस जन वितरण प्रणाली के जरिये गरीबों को बुनियादी आवश्यकताएँ मुहैया करने के नाम पर सब्सिडी से हजारो करोड़ रुपये की हर साल लूट होती है लेकिन गरीबों को क्या मिलता है...सिर्फ और सिर्फ ठेंगा??? 

हमारी राय में सब्सिडी की परिकल्पना को पुनः परिभाषित करने की जरूरत है? सब्सिडी को जरूरतों के मुताबिक वर्गीकरण करना होगा? नहीं तो सरकार सब्सिडी के नाम पर जो टैक्स की लूट मचा रखी है वो कभी बंद नहीं होगी...अगर तिरोभूत टैक्स देखे तो हमारे देश में इसका मकड़ जाल है जो सरकार सिर्फ इस तर्क पे वसूलती है की हमारे पास सब्सिडी का बोझ है?? निर्माता की लागत और उपभोक्ता कीमतों को पूरी तरह से बाजार को सौप दिया जाना चाहिए...बाजार को ही कीमत तय करने दे...हमारे देश में सब्सिडी जब तक रहेगी विकाशशील से विकसित कभी नहीं हो पायेंगे...सब्सिडी जब तक रहेगा राजनितिक पार्टियाँ कभी भी देशहित या जनहित के लिए अच्छा एवं रचनात्मक कार्य नहीं करेंगी...राजनीतिज्ञों को उनके भविष्य सुरक्षित करने के लिए सब्सिडी है ना...जनता के समक्ष राजनीतिज्ञ समय समय पर सब्सिडी को कामुक अंदाज में पेश एवं विपणन करती रहेंगी...गरीबों या देश की किसको पड़ी है?


सब्सिडी..हलकट जवानी


अरे! बस्ती में डेली बवाल करे..
हाए..नेताओं की नीयत हलाल करे..
आईटम बना के रख ले...
चखना बना के चख ले...
मीठा यह नमकीन पानी..
यह हलकट जवानी,यह हलकट जवानी...

Wednesday, October 3, 2012

गांधी-गीरी

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गाँधी जयंती मनाया गया.हाँ यह बात अलग है की आम आदमी के लिए इसके मायने क्या है? एक महान व्यक्ति को याद कर उनका सम्मान करना या भाग दौड़ भरी जिंदगी में तय एक छुट्टी का दिन.बदलते राजनितिक परिवेश और आधुनिकता के दौर से गुजरते समय में गाँधी जयंती एवं उनके आदर्शो का सम्मान अब बस औपचारिकता मात्र रह गयी है.एक संकल्पवान सख्शियत जिनकी अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ आस्था ने आन्दोलन शब्द को एक अलग पहचान दिया,एक चेहरा दिया,हर खाश ओ आम को उनके अपनी आवाज़ की शक्ति का अहसास दिलाया और यह भरोसा जब समूहों में एकत्रित हुआ तो आज़ादी के तख़्त-ओ-ताज  के साथ साथ सरहदों का भी अम्बार लग गया.सच्चे आन्दोलन की ताक़त का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.लेकिन आज हमारे देश में आन्दोलन गांधीगिरी से शरू तो होता है पर बिना परिणाम के इसी गांधीगिरी के बीच तड़पकर दम भी तोड़ देता है.आन्दोलन अब एक व्यवसाय बन चुका है.भ्रस्टाचार,महंगाई,आरक्षण या भारतीय बाजारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मुद्दा. आन्दोलन करे तो किस चीज के लिए? प्राथमिकता दे तो किसको? राजनीती और राजनितिक मजबुरी के बीच आम आदमी की जरूरत राजनीती के बाजार में बार बार नीलाम होती है.हर पार्टी आम आदमी की जरूरत को अपने अपने चश्मे की लियाकत के अनुसार देखती है.किसी की नजदीक की दृष्टि कमजोर है तो किसी की दूर की दृष्टि.राजनीती का दृष्टि दोष इस विशालकाय प्रजातंत्र को क्या दिशा प्रदान कर पाएगी? राजनीती में या तो उन्नत किस्म के चश्मे की जरूरत है या वैसे व्यक्तियों की जिनको दृष्टि दोष हो ही ना? एक आन्दोलन की कितनी सहजता से मृत्यु हो गयी इसका अंदाजा श्री अरविन्द केजरीवाल की नवगठित पार्टी सम्मलेन में आम आदमी छपी टोपी पहने कार्यकर्ताओं से अब अच्छी तरह लगाया जा सकता है.यही कार्यकर्ता चंद महीने पहले गांधीवादी विचारधारा को सर आँखों पे बिठाकर आन्दोलन की ताक़त प्रदर्शित किया करते थे.गांधीगीरी आज गाँधी के समक्ष ही दम तोडती नजर आ रही है.बाजार में बिचौलिए तो सभी स्वीकार करते है और इसको स्वीकार करने की ठोश वजह भी समझ आती है पर लोकतंत्र में आन्दोलन जो जनता की शक्ति मानी जाती है अगर यह भी बिचौलिए के मोहताज हो जाए तो यह मान लेनी चाहिए की अंग्रेजो से आजादी तो मिल गयी परन्तु राजनितिक आजादी मिलनी अभी बाकी है.अन्ना और केजरीवाल के रिश्तो में दरार एवं एक आन्दोलन की दर्दनाक मृत्यु इसी राजनितिक गुलामी के गवाह है? आईना भले ही खुबसुरत और बदसुरत में फर्क नहीं समझ पता परन्तु हर आईना पीछे से सदैब कोरा ही होता है.प्रतिनिधि लोकतंत्र  प्रणाली में चुनाव का ही महत्व है.जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही जनता के लिए क़ानून बनाते हैं और संवैधानिक व्यवस्थाओं का क्रियान्वित करने का कार्य करते हैं.2014 के चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है और यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि प्रतिनिधि लोकतंत्र में चुनाव रुपी आईना इस बार मुखौटो और असली चेहरों में फर्क समझ पाती है या नहीं?

Saturday, September 22, 2012

मैन बनाम मैम-पार्ट-II

टी-२० डीजल,LPG और FDI ट्राफी,Man बनाम Mam के खिताबी मुकाबले की दुसरी पारी में आपका स्वागत है.INDIA इडेन गार्डेन स्टेडियम लगभग १२१ करोड़ दर्शको से खचा खच भरा हुआ है और इनका उत्साह देखते नहीं बन रहा है.अपनी अपनी टीम का हौसला अफजाई करने के लिए कोई अपने सर पर LPG गैस सिलिंडर का टैटू,कोई FDI का बैनर तो कोई पेट्रोल पम्प मुद्रित छवि वाला टोपी पहन रखा है.पुलिंग M के खिलाड़ी मैदान में पहुच चुके है और उधर स्त्रीलिंग M के ओपनर्स भी क्रीज़ की तरफ जाते हुए दिखाई दे रहें है.अम्पायर ने अब खेल शुरू करने का इशारा कर दिया है और पुलिंग M के गेंदबाज राईट आर्म राउंड दी विकेट..दुसरी पारी की पहली गेंद..बिलकुल ब्लॉक होल्ड में...स्त्रीलिंग M के बल्लेबाज बड़ी मुश्किल से इस गेंद को रोकने में कामयाब...चेट्टियार घराने से ताल्लुक रखने वाले तमिलनाडु के इस गेंदबाज की ब्लॉक होल्ड ही खासियत है.. किसी भी बल्लेबाज को अपनी सटीक योर्कर से मुश्किल में डाल सकता है...उधर अम्पायर ने ओवर समाप्ति का इशारा किया...बहुत उम्दा गेंदबाजी...मेडन ओवर कोई रन नहीं...कप्तान ने अपने दुसरे सबसे सक्षम गेंदबाज जो फर्रुखाबाद का है से बातचीत करते हुए..माध्यम गति का गेंदबाज है पर इसकी खासियत यह है की यह बीच बीच में बहुत अच्छी गति परिवर्तन करता है जो की ट्वेंटी-ट्वेंटी में विकेट निकालने के लिए एक कारगर हथियार है...अम्पायर द्वारा ओवर शुरू करने का इशारा..कॉमन मैन एंड से फर्रुखाबाद का गेंदबाज रन अप पे दौड़ लगाते हुए ये पहली गेंद ऑफ साइड से थोडा बाहर जिसको बल्लेबाज ने कट किया,पर सेकंड स्लिप पे बहुत अच्छी फील्डिंग..कोई रन नहीं..आज पुलिंग M ने जो फिल्ड सेटिंग किया है उसकी दाद देनी होगी...ठीक बौलर्स की योग्यता की मुताबिक़....अब गेंदबाज दूसरी गेंद के लिए रन अप पे दौड़ लगाते हुए...ये गेंद थोड़ी सी लेग साइड से बाहर जिसको बल्लेबाज ने मोड़ दिया है,मिड ऑन के फिल्डर गेंद के पीछे भाग रहे रहे..बल्लेबाज दो रन पूरा कर चुके है,तीसरे रन के लिए भागते हुए...बाउंड्री से एक अच्छा थ्रो पर तब तक बल्लेबाज ने तीन रन पूरा कर लिया...अच्छा एवं कांफिडेंट ड्राइव...जैसा की आप देख सकते आज कई नामी गिरामी हस्तियाँ भी इस मैच को देखने के लिए आयें है.ये जो लाल रंग के शर्ट में दिख रहे है कॉमन मैन पार्टी ऑफ़ इंडिया के प्रवक्ता है...वो जो दायीं तरफ VIP बॉक्स में दिख रहे है,ये अन सोसल पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष है...दर्शको के साथ FDI का बैनर लेकर आक्रोश प्रदर्शित करते हुए... कमेन्ट्री बॉक्स से ये पता लगाना बड़ा मुस्किल है की ये FDI के तरफ है या जनता के तरफ...ओवर समाप्ति का इशारा...स्त्रीलिंग M दो ओवर की समाप्ति पर ४ रन बिना कोई नुकसान के...पुलिंग M की कसी हुई गेंदबाजी एवं अच्छी फील्डिंग ने स्त्रीलिंग M को खुल कर खेलने नहीं दिया है...पुलिंग M के कप्तान गेंदबाजी में थोडा परिवर्तन करते हुए...स्पिन गेंदबाज का इस्तेमाल करने का फैसला किया है...टी-२० के शरुआती ओवर में स्पिन का इस्तेमाल,काफी बोल्ड डिसीजन माना जायेगा..खैर जालंधर का ये गेंदबाज दूसरा फेकने में उस्ताद है..अपनी फिरकी के जाल में बड़े बड़े खिलाडियों  को फंसा सकता है...वैसे आज कल इसकी फॉर्म थोड़ी लड़खड़ाई हुई है...लेकिन इस तरह के फॉर्मेट में कब कौन अच्छा कर जाए,कोई नहीं जानता..अम्पायर का ओवर शुरू करने का इशारा राईट आर्म ओवर द विकेट... पहली गेंद थोड़ी तेज गति की गूगली..बैट्समन ने रक्षात्मक तरीके से खेला...कोई रन नहीं...अभी आपने जो नारंगी रंग के साड़ी में जिनको देखा.वो भारतीय देखता पार्टी के सदन में मुख्य नेता है...आप देख सकते है...पेट्रोल पम्प मुद्रित छवि वाला टोपी पहन मैच का लुत्फ़ उठा रहे है...क्षमा कीजियेगा कमेंटेटर के लिए ये बताना बहुत मुस्किल हो रहा है की ये इस मुकाबले में क्या कर रही है...पर अंदाज यही लगाया जा सकता है...नैया डूबे किस भी टीम की दफ्तर में लड्डू बटवाऊं मैं,जश्न मनाऊं मै...तीसरे ओवर की आखरी गेंद..ऑफ स्टंप पर..बल्लेबाज ने सीधे कीपर के लिए छोड़ दिया...मेडन ओवर कोई रन नहीं...चौथा ओवर..फिर गेंदबाजी में परिवर्तन...इस बार सोलापुर में जन्मे एक दलित गेंदबाज के हाथ में गेंद दी गयी है..ये राजनीती के खेल के बड़े अनुभवी खिलाडी है...पर गेंदबाजी से ज्यादा बल्लेबाजी में सफल रहे है लेकिन सफलता मिले या न मिले,कप्तान पुलिंग M हमेशा नए नए प्रयोगों के लिए मशहूर रहे है....चौथा ओवर गेंदबाज गेंद डालते हुए...गेंद सीधे जाकर पैड पे टकराई..LBW की अपील पर अम्पायर ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई...उधर दर्शकों में काफी आक्रोश है...धीमी बल्लेबाजी के कारण उनको ऐसा लग रहा है की जैसे टी-२० नहीं टेस्ट मैच देख रहे हो.स्टेडियम में दर्शक आपस में उलझते हुए देखे जा सकते है...सुरक्षाकर्मी बार बार शांत होने के लिए घोषणा कर रहे है...शोर शराबे के कारण अम्पायर ने भी खेल थोड़ी देर के लिए रोक दिया है...अभी आपने नीली लिबास में जिस महाशया को देखा वो विफल समाज पार्टी की मुखिया है...बहुत संघर्ष कर खेल का इतना ऊँचा मकाम हासिल किया है...ये बिलकुल शांत दिख रहे है...इसी वर्ष खेल में मिली करारी हार से निराश ये कुछ समझ नहीं पा रही है...आजकल गरीबी और महंगाई से ज्यादा आरक्षण पर संवेदनशील रहती है...खैर ख़ुशी की बात यह है अम्पायर ने खेल शुरू करने का निर्णय लिया है....चौथे ओवर की अगली गेंद... फुल टॉस...बल्लेबाज ने उछाल दिया है लेकिन वहाँ कोई फिल्डर मौजूद नहीं...जोखिम हो सकता था लेकिन बल्लेबाज के खाते में एक रन का इजाफा...इतनी सारी नामी गिरामी हस्तियों की मौजूदगी से आप अंदाजा लगा सकते हैं की हमारे देश में भारतीय राजनीती की  अंतर्देशीय टी-२० प्रतियोगिता की लोकप्रियता कितनी है...जनहित से ज्यादा व्यक्तिगत लाभ महत्वपूर्ण है...किसी भी खेल में फायदा सिर्फ खिलाडियों का ही होता है,दर्शको के लिए खेल तो मात्र मनोरंजन है...ठीक इसी तरह राजनीती की इस टी-२० प्रतियोगिता से महसूस किया जा सकता है की राजनीती के इस खेल में फायदा सिर्फ नेतागण का ही है,आम आदमी/जनता और इससे जुड़े जन कल्याण की बातें तो सिर्फ इनके लिए मनोरंजन है... चौथे ओवर की समाप्ति पर स्त्रीलिंग M का स्कोर ४ ओवर की समाप्ति पर पांच रन...पुलिंग M के कप्तान ने फर्रुखाबाद के गेंदबाज को गेंदबाजी के लिए बापस बुलाया है...पुलिंग M के कप्तान गेंदबाजी में लगातार परिवर्तन कर बल्लेबाजों को पैर जमाने का बिल्कुल ही मौका नहीं दे रहे है. पांचवा ओवर...पहली गेंद...मिडल और ऑफ स्टंप के बीच..बल्लेबाज ने रक्षात्मक तरीके से खेला कोई रन नहीं...यहाँ  एक बात और गौर करने  है की स्त्रीलिंग M के बल्लेबाज धीमा खेलने के बाबजूद रन रेट बढाने की कोई कोशिश नहीं कर रहे है...पता नहीं स्त्रीलिंग M की क्या रणनीति है...पांचवे ओवर की भी समाप्ति की घोषणा..मेडन ओवर के साथ स्त्रीलिंग M का स्कोर ५ ओवर की समाप्ति पर पांच रन...दर्शक एक बार फिर से शोर शराबा करते दिखाई दे रहे है...स्त्रीलिंग M के बल्लेबाजों में कोई उत्साह नहीं दिखाई दे रही है... दर्शक तो हतोत्साह होंगे ही...आयोजक एक बार फिर दर्शको को शांत करने के प्रयास में जुट गए हैं...इसी बीच छठे ओवर के लिए तमिलनाडु के तेज तर्रार गेंदबाज को दुबारा बुलाया गया है...लगता है पुलिंग M POWER PLAY को पूरी तरह से प्रभावहीन कर देना चाहते है...इसी बीच छठे ओवर की आखरी गेंद.. बल्लेबाज ने खेल दिया है कवर की दिशा में,एक रन पुरा कर लिया वही दुरी तरफ दर्शको ने फिल्डर पर पानी और कोल्ड ड्रिंक की बोतलें फेकना शुरू  कर दिया है...अम्पायर ने फिलहाल खेल रोक दिया है...हालात को देखते हुए सुरक्षा  के लिहाज से खिलाडियों  को पवेलियन वापस भेजा जा रहा है...दर्शको  के कुछ समूह ने स्टेडियम में आग भी लगा दिया है...आयोजक और सुरक्षाकर्मी दर्शको को काबू करने की कोशिश में लगें है...पर लगता नहीं है की ये मुकाबला दुबारा शुरू हो पायेगा...स्त्रीलिंग M का स्कोर ६ ओवर में ६ रन को देखते हुए निश्चित तौर पर पुलिंग M का पलड़ा भरी दिख रहा है...अभी अभी आयोजको की तरफ से ये सुचना आई है इस बिगड़े हालात के मद्धेनजर इस मुकाबले का परिणाम सुरक्षित रख लिया गया है...हमेशा ही दर्शक रुपी जनता के पैसे और भावना का यही हश्र होता आ रहा है...और इस मुकाबले में भी जनता और देश के राजस्व का करोड़ो का नुकसान हुआ परन्तु डीजल,LPG और FDI ट्राफी के धुन के आगे जनता का दर्द दिखाई दे तब ना? अर्थशास्त्र एवं अर्थ में जद्दो जहद के बीच देशहित और जनहित को कभी इतना अघात नहीं पंहुचा होगा जितना की इस  डीजल,LPG और FDI ट्राफी में पंहुचा है... स्त्रीलिंग M को पहली बार उनकी राज्य में गिरते जनविश्वास का एहसास हुआ..अच्छी बात है...लेकिन संसद को कमजोर कर और देश को मध्यावधि चुनाव की तरफ धकेलते हुए,क्या यह एक जनहित से जुडी निर्णय मानी जायेगी?...किसी भी राज्य की जनता क्या देश की जनता नहीं है? राज्य सर्वोपरि है या देश? अपने लाभ के लिए प्रांतवादी राजनीती करनी छोड़ दे हमारे नेतागण?...ये राज्यहित के लिए संसद की बेइज्जती नहीं तो और क्या है?...सब्सिडी से गरीबों को राहत तो महसूस हो सकती है लेकिन गरीबी कम या ख़त्म नहीं हो सकती? अगर सब्सिडी से गरीबी कम या खत्म हो सकती थी तो ६५ वर्ष से लगातार मिल रही सब्सिडी से गरीबी अब गरीब नहीं होनी चाहिए थी?