Negative Attitude

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Wednesday, October 3, 2012

गांधी-गीरी

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी गाँधी जयंती मनाया गया.हाँ यह बात अलग है की आम आदमी के लिए इसके मायने क्या है? एक महान व्यक्ति को याद कर उनका सम्मान करना या भाग दौड़ भरी जिंदगी में तय एक छुट्टी का दिन.बदलते राजनितिक परिवेश और आधुनिकता के दौर से गुजरते समय में गाँधी जयंती एवं उनके आदर्शो का सम्मान अब बस औपचारिकता मात्र रह गयी है.एक संकल्पवान सख्शियत जिनकी अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ आस्था ने आन्दोलन शब्द को एक अलग पहचान दिया,एक चेहरा दिया,हर खाश ओ आम को उनके अपनी आवाज़ की शक्ति का अहसास दिलाया और यह भरोसा जब समूहों में एकत्रित हुआ तो आज़ादी के तख़्त-ओ-ताज  के साथ साथ सरहदों का भी अम्बार लग गया.सच्चे आन्दोलन की ताक़त का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.लेकिन आज हमारे देश में आन्दोलन गांधीगिरी से शरू तो होता है पर बिना परिणाम के इसी गांधीगिरी के बीच तड़पकर दम भी तोड़ देता है.आन्दोलन अब एक व्यवसाय बन चुका है.भ्रस्टाचार,महंगाई,आरक्षण या भारतीय बाजारों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मुद्दा. आन्दोलन करे तो किस चीज के लिए? प्राथमिकता दे तो किसको? राजनीती और राजनितिक मजबुरी के बीच आम आदमी की जरूरत राजनीती के बाजार में बार बार नीलाम होती है.हर पार्टी आम आदमी की जरूरत को अपने अपने चश्मे की लियाकत के अनुसार देखती है.किसी की नजदीक की दृष्टि कमजोर है तो किसी की दूर की दृष्टि.राजनीती का दृष्टि दोष इस विशालकाय प्रजातंत्र को क्या दिशा प्रदान कर पाएगी? राजनीती में या तो उन्नत किस्म के चश्मे की जरूरत है या वैसे व्यक्तियों की जिनको दृष्टि दोष हो ही ना? एक आन्दोलन की कितनी सहजता से मृत्यु हो गयी इसका अंदाजा श्री अरविन्द केजरीवाल की नवगठित पार्टी सम्मलेन में आम आदमी छपी टोपी पहने कार्यकर्ताओं से अब अच्छी तरह लगाया जा सकता है.यही कार्यकर्ता चंद महीने पहले गांधीवादी विचारधारा को सर आँखों पे बिठाकर आन्दोलन की ताक़त प्रदर्शित किया करते थे.गांधीगीरी आज गाँधी के समक्ष ही दम तोडती नजर आ रही है.बाजार में बिचौलिए तो सभी स्वीकार करते है और इसको स्वीकार करने की ठोश वजह भी समझ आती है पर लोकतंत्र में आन्दोलन जो जनता की शक्ति मानी जाती है अगर यह भी बिचौलिए के मोहताज हो जाए तो यह मान लेनी चाहिए की अंग्रेजो से आजादी तो मिल गयी परन्तु राजनितिक आजादी मिलनी अभी बाकी है.अन्ना और केजरीवाल के रिश्तो में दरार एवं एक आन्दोलन की दर्दनाक मृत्यु इसी राजनितिक गुलामी के गवाह है? आईना भले ही खुबसुरत और बदसुरत में फर्क नहीं समझ पता परन्तु हर आईना पीछे से सदैब कोरा ही होता है.प्रतिनिधि लोकतंत्र  प्रणाली में चुनाव का ही महत्व है.जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही जनता के लिए क़ानून बनाते हैं और संवैधानिक व्यवस्थाओं का क्रियान्वित करने का कार्य करते हैं.2014 के चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है और यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि प्रतिनिधि लोकतंत्र में चुनाव रुपी आईना इस बार मुखौटो और असली चेहरों में फर्क समझ पाती है या नहीं?

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