२००४ आम चुनाव चार चरणों में,२००९ आम चुनाव पांच चरणों में और अब २०१४ आम चुनाव के लिए नौ चरणों में मतदान हो रहा है.लोकतंत्र का 36 दिन का यह चुनावी मेला भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे लम्बा है. माना की लंबे और कई चरणों में संपन्न होने वाले चुनाव का एकमात्र कारण सुरक्षा है.स्थानीय पुलिस पर सदैब पक्षपात का आरोप लगता रहा है है इसलिए केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है. इन सुरक्षा बलों को चुनावों के दौरान शांति व्यवस्था स्थापित करने के लिए उन्हें पूरे देश में भेजा जाता है. यही कारण है कि इसमें समय लगता है.लेकिन क्या इतने लम्बे चुनाव अनपेक्षित परिणामों की तरफ़ नहीं ले जाते हैं? इतनी लम्बी चुनावी प्रक्रिया सियासी संस्थाओं को क्या यह अवसर प्रदान नहीं करती है जिसमे उनका चुनाव प्रचार तीखा,भड़काऊ और कटुतापूर्ण हो? क्या यह मतदाताओं में एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही करता?
कई चरणों में होने वाले चुनाव से शुरुआती दौर वाले में लड़ने वाले प्रत्याशियों और दलों को नुकसान होता है क्योंकि उन्हें अपने चुनाव कार्यक्रम के लिए कम समय मिलता है.यहाँ इस बात से भी इनकार नही किया जा सकता क़ी लंबी अवधि वाले चुनाव में उस पार्टी के जीत का अंतर बढ़ जाता है जिसके समर्थन में लहर होती है या जिसके बड़े अंतर से जीतने का पूर्वानुमान होती है.सामाजिक वैज्ञानिकों कि माने तो लंबी अवधि वाले चुनाव,चुनावी प्रक्रीया और मतदाताओं को दिग्भ्रमित करने में उतना ही कारगार होगा जितना क़ी चुनाव के दौरान या इसके इर्द गिर्द किये जाने वाले ओपिनियन पोल और इस पर आधारित सियासी पार्टियों के लिये सीटो का पूर्वानुमान!
इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र के इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘प्रपंच’ खेलकर ही चुनाव जीतने की प्रथा रही है। इससे अतिरिक्त मस्तिष्क पर थोड़ा वज़न डालते है तो अंतर्मन से यहीं सन्देश प्राप्त होत है की अनैतिकता,लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था और लोकतंत्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक अंपायर जैसी है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं,जो आचार संहिता है उसके चलते यहाँ क़ा मैंगों मैन तो इस खेल में महज़ एक मोहरा या बहुत सम्मान दिया तो,मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे अंपायर के तौर पर चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि कोई खिलाड़ी खेल को कलुषित न करे जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मूकदर्शक मोहरे भड़क न जायें। जो चुनाव अपने आप में करोड़ों रुपये के निवेश वाला वैधानिक व्यवसाय हों और वहीँ दूसरी तरफ़ जहाँ देश की लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जीती हो,जहाँ आर्थिक असमानता, अवैज्ञानिकता और सच्चे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अनुपस्थिति हो; जहाँ व्यवस्था के केन्द्र में आम आदमी न होकर कुछ विशिष्ट लोगों का स्वार्थ हो,वहाँ की चुनावी प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकती है क्या? खैर बापस लम्बे वाले मुद्दे पर चलते है.
इतनी लम्बी अवधि में होने वाले चुनाव से चुनावी मुद्दे भी बदल जाते है और ये राजनैतिक,देशहित या जनहित क़ा न होकर बेहद निजी और क्रोधात्मक हो जाते है जो बाद के चरणों के चुनाव के लिये चिन्हित मतदाता वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित करता है.उदाहरण के तौर पर पहले दो-तीन चरणों के मतदान में मतदाताओं पर वॉड्रा टेप या स्नूप गेट क़ा प्रभाव नहीं था लेकिन उसके बाद यह मामला जो की अभी कानुनी तौर पर अधुरा है,को राजनितिक पार्टियों द्वारा इस चुनावी माहौल में एक ऐसे सिक्के के रुप में उछाला गया जिसमे स्थिति हेड है या टेल है स्पष्ट हीं न हो परन्तु ये सुनिश्चित अवश्य करे की जनता दिग्भ्रमित हो! और मीडिया रिपोर्ट पर यकीन करे तो अभी तक यह चुनावी गुगली कारगर रहा है. अब अन्त होते होते असम हिंसा को इस तरह तवज्जों दी जा रही है जिसमे चुनाव और चुनावी माहौल जिम्मेदार दिखता है और यह तुस्टिकरण सुनिश्चित करने के लिये राजनीतिज्ञों के लिये ब्रह्मास्त्र है,बोला जाये तो गलत नही होगा। क्या यह मतदाताओं के नैसर्गिक सोच को दूषित करने का अवसर प्रदान नही कर रहा?
इतने लम्बे चुनावी प्रक्रिया के बीच हो रही बेतुकी और वाहियात घटनाओ से वैसे मतदाता-वर्ग जहाँ एक चरण में मतदान हुआ और वैसे मतदाता-वर्ग जहॉं एक से अधिक चरणों में चुनाव हुआ,में मतदान में अभिनति उत्पन्न नही हुई होंगी?
क्या इतने लम्बे चुनावी प्रक्रीया की आवश्यकता है? क्या २०१४ आम चुनाव की लम्बी अवधि एवं कई चरणो में हो रहे चुनाव से मतदाताओं में प्रोसेस बायस या एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही कर रहा है ? जरा सोचिये !!!
कई चरणों में होने वाले चुनाव से शुरुआती दौर वाले में लड़ने वाले प्रत्याशियों और दलों को नुकसान होता है क्योंकि उन्हें अपने चुनाव कार्यक्रम के लिए कम समय मिलता है.यहाँ इस बात से भी इनकार नही किया जा सकता क़ी लंबी अवधि वाले चुनाव में उस पार्टी के जीत का अंतर बढ़ जाता है जिसके समर्थन में लहर होती है या जिसके बड़े अंतर से जीतने का पूर्वानुमान होती है.सामाजिक वैज्ञानिकों कि माने तो लंबी अवधि वाले चुनाव,चुनावी प्रक्रीया और मतदाताओं को दिग्भ्रमित करने में उतना ही कारगार होगा जितना क़ी चुनाव के दौरान या इसके इर्द गिर्द किये जाने वाले ओपिनियन पोल और इस पर आधारित सियासी पार्टियों के लिये सीटो का पूर्वानुमान!
इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र के इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘प्रपंच’ खेलकर ही चुनाव जीतने की प्रथा रही है। इससे अतिरिक्त मस्तिष्क पर थोड़ा वज़न डालते है तो अंतर्मन से यहीं सन्देश प्राप्त होत है की अनैतिकता,लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था और लोकतंत्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक अंपायर जैसी है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं,जो आचार संहिता है उसके चलते यहाँ क़ा मैंगों मैन तो इस खेल में महज़ एक मोहरा या बहुत सम्मान दिया तो,मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे अंपायर के तौर पर चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि कोई खिलाड़ी खेल को कलुषित न करे जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मूकदर्शक मोहरे भड़क न जायें। जो चुनाव अपने आप में करोड़ों रुपये के निवेश वाला वैधानिक व्यवसाय हों और वहीँ दूसरी तरफ़ जहाँ देश की लगभग आधी आबादी ग़रीबी में जीती हो,जहाँ आर्थिक असमानता, अवैज्ञानिकता और सच्चे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अनुपस्थिति हो; जहाँ व्यवस्था के केन्द्र में आम आदमी न होकर कुछ विशिष्ट लोगों का स्वार्थ हो,वहाँ की चुनावी प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकती है क्या? खैर बापस लम्बे वाले मुद्दे पर चलते है.
इतनी लम्बी अवधि में होने वाले चुनाव से चुनावी मुद्दे भी बदल जाते है और ये राजनैतिक,देशहित या जनहित क़ा न होकर बेहद निजी और क्रोधात्मक हो जाते है जो बाद के चरणों के चुनाव के लिये चिन्हित मतदाता वर्ग को बुरी तरह से प्रभावित करता है.उदाहरण के तौर पर पहले दो-तीन चरणों के मतदान में मतदाताओं पर वॉड्रा टेप या स्नूप गेट क़ा प्रभाव नहीं था लेकिन उसके बाद यह मामला जो की अभी कानुनी तौर पर अधुरा है,को राजनितिक पार्टियों द्वारा इस चुनावी माहौल में एक ऐसे सिक्के के रुप में उछाला गया जिसमे स्थिति हेड है या टेल है स्पष्ट हीं न हो परन्तु ये सुनिश्चित अवश्य करे की जनता दिग्भ्रमित हो! और मीडिया रिपोर्ट पर यकीन करे तो अभी तक यह चुनावी गुगली कारगर रहा है. अब अन्त होते होते असम हिंसा को इस तरह तवज्जों दी जा रही है जिसमे चुनाव और चुनावी माहौल जिम्मेदार दिखता है और यह तुस्टिकरण सुनिश्चित करने के लिये राजनीतिज्ञों के लिये ब्रह्मास्त्र है,बोला जाये तो गलत नही होगा। क्या यह मतदाताओं के नैसर्गिक सोच को दूषित करने का अवसर प्रदान नही कर रहा?
इतने लम्बे चुनावी प्रक्रिया के बीच हो रही बेतुकी और वाहियात घटनाओ से वैसे मतदाता-वर्ग जहाँ एक चरण में मतदान हुआ और वैसे मतदाता-वर्ग जहॉं एक से अधिक चरणों में चुनाव हुआ,में मतदान में अभिनति उत्पन्न नही हुई होंगी?
क्या इतने लम्बे चुनावी प्रक्रीया की आवश्यकता है? क्या २०१४ आम चुनाव की लम्बी अवधि एवं कई चरणो में हो रहे चुनाव से मतदाताओं में प्रोसेस बायस या एलेक्शनिअरिंग बायस उत्पन्न नही कर रहा है ? जरा सोचिये !!!
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