प्रतिष्ठित और बदनाम दोनों ही मशहूर होते है... उदाहरणस्वरूप,आप अगर इन पर प्रतिक्रिया इकठ्ठा करना चाहे तो सभी इसमें मशरूफ दिखेंगे,चाहे वो इनके प्रति नकारात्मक विचार रखते हो या साकारात्मक! ऑडिएंस का उत्साह दोनों के लिए लगभग एक जैसा होता है.फिर प्रश्न ये उठता है की इस कटु सत्य से वाक़िफ़ होने के बाद भी क्या इसकी सेंटीमेंट एनालिसिस करनी चाहिए? फिर भी अगर हम इसकी सेंटीमेंट एनालिसिस करते है तो इसका अर्थ ये मालूम होता है की प्रतिष्ठा पर बनावटी उबटन लगा विपणन कर प्रसिद्धि में से सिद्धि का पतन कर रहे है...
दिल्ली की राजनीतिक दुर्घटना फिर किसी भी प्रान्त में दोहराई नहीं जानी चाहिए। दिल्ली की जनता ने मीडिया के प्रोत्साहन पर झाड़ू अपनाया और झाड़ू दिल्ली की जनता की सेवा करने के वजाए राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर होने में मशरूफ है.दिल्ली आज संबैधानिक तौर पर अस्थायी व्यवस्था के अधीन जीने को मजबूर है. दूरदर्शिता और सेवा की भावना किसी संस्था से ज्यादा उससे जुड़े व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में होता है और इसकी मिशाल रही है श्रीमती शीला दीक्षित जिन्होंने दिल्ली के विकास की एक अलग एवं अद्भुत दिशा प्रदान की लेकिन अपनी दिल की सुनने के वजाए वाणिज्य के चादर में लिपटे मीडिया के प्रोत्साहन पर दिल्ली के लोगो ने अपना मत व्यर्थ गंवाया और साथ साथ दिल्ली के लिए कुछ करने की सोच रखने वाली एक कर्मठ महिला को भी ? इससे कुछ और नहीं वल्कि स्वाद बदलने के चक्कर में आपका विकास का रुख बदल और रुक भी जाता है,साथ साथ आप एक ऐसे माहौल,ऐसे ज्योतिषीय योग को गँवा देते है जो कुलमिलाकर आपके धरातल के लिए फलदायी होता है. बिहार की जनता इस बात का जरूर ख़याल रखे और किसी तरह के गफलत में न पड़े,आज़ादी के बाद आज पहला ऐसा मौका है जिसमे आप बिहार के लिए जो कुछ भी अच्छा बोल या लिख गौरवान्वित महसूस कर रहे है वो सिर्फ और सिर्फ श्री नीतीश कुमार के दूरदर्शिता और सेवा की भावना का परिणाम है और अगर आप अपने वोट के जरिये इस सोच और लगन का समर्थन नहीं करेंगे तो परिणाम में व्याधि और दिल्ली जैसा हालात ही मयस्सर होगा. आप राजनीतिक संस्थाओं के संयुक्त परिवारवाद से दूर रहे,इनकी एक दूसरे के प्रति कटुता,बिखराव और मिलन एक वायरल बुखार जैसा होता है जिसमे स्वार्थ के एंटीबायटिक का कोर्स पूरा होते ही तापमान सामान्य हो जाता है.आप अपना वोट अपना,अपने समाज,अपने क्षेत्र और अपने देश के विकास और समृद्धि को ध्यान में रख कर दे ना की प्रचार और घोषणा पत्र को देखकर,घोषणा पत्र तो राजनीतिक संस्थाओं द्वारा सार्वजनिक प्रलोभन का संवैधानिक जरिया है जो ना तो कभी पूरा होता है और ना ही पूरा करने के उद्देश्य से जारी किया जाता है! ये तो वयस्क फिल्मो के सीक्वल जैसा होता है जिसमे पहले पार्ट में पोस्टर पर अश्लीलता होगी तो दूसरे पार्ट में फिल्म में,ताकि ऑडिएंस की संख्या बड़ी हो और उनमे से ज्यादा से ज्यादा लोगो को अपने दरियादिली के सम्मोहन में फसाया जा सके?
अच्छी और प्रगतिशील सोच का समर्थन करे, चुनाव चिन्ह तो एक सुक्ष्म धागा है जो एक संस्था के घोषित आदर्शो को बाँध कर रखता है,भाषण में इस्तेमाल शब्द तो बस तत्परता के घोतक है,मतलब कहाँ है इसमें और ना ही इसकी कोई क़ानूनी महत्ता है जिसके जरिये आप ये पूछ सके की आपने ये वादा किया था और पूरा नहीं किया? वैसे दोस्तों शब्दों और उससे जुड़े मतलब को खंगाले तो ध्यान रहे... अरविन्द का समानार्थी शब्द कमल भी होता है....
ऊँगली के सहारे के बिना कलम का जोर भी फीका होता है ठीक उसी तरह वोट का असर और सदुपयोग भी इसी ऊँगली के अधीन है.… इसलिए मतदान अवश्य करे लेकिन सही सोच के साथ और किसी पार्टी या प्रत्याशी की विजय के लिए नहीं वल्कि अपनी जीत सुनिश्चित करे.…प्रजातंत्र का ससक्तिकरन इसी में निहित है!
मैं अपने गृह राज्य से बाहर परप्रांति समुदाय से ताल्लुक रखता हूँ और मेरा उद्देश्य इस आलेख के जरिये किसी व्यक्ति या संस्था को आहत करना नहीं है,मैं तो बस जन सशक्तिकरण के अधिकार अभिव्यक्ति की आज़ादी की अनुभूति करना चाहता हूँ....
दिल्ली की राजनीतिक दुर्घटना फिर किसी भी प्रान्त में दोहराई नहीं जानी चाहिए। दिल्ली की जनता ने मीडिया के प्रोत्साहन पर झाड़ू अपनाया और झाड़ू दिल्ली की जनता की सेवा करने के वजाए राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर होने में मशरूफ है.दिल्ली आज संबैधानिक तौर पर अस्थायी व्यवस्था के अधीन जीने को मजबूर है. दूरदर्शिता और सेवा की भावना किसी संस्था से ज्यादा उससे जुड़े व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में होता है और इसकी मिशाल रही है श्रीमती शीला दीक्षित जिन्होंने दिल्ली के विकास की एक अलग एवं अद्भुत दिशा प्रदान की लेकिन अपनी दिल की सुनने के वजाए वाणिज्य के चादर में लिपटे मीडिया के प्रोत्साहन पर दिल्ली के लोगो ने अपना मत व्यर्थ गंवाया और साथ साथ दिल्ली के लिए कुछ करने की सोच रखने वाली एक कर्मठ महिला को भी ? इससे कुछ और नहीं वल्कि स्वाद बदलने के चक्कर में आपका विकास का रुख बदल और रुक भी जाता है,साथ साथ आप एक ऐसे माहौल,ऐसे ज्योतिषीय योग को गँवा देते है जो कुलमिलाकर आपके धरातल के लिए फलदायी होता है. बिहार की जनता इस बात का जरूर ख़याल रखे और किसी तरह के गफलत में न पड़े,आज़ादी के बाद आज पहला ऐसा मौका है जिसमे आप बिहार के लिए जो कुछ भी अच्छा बोल या लिख गौरवान्वित महसूस कर रहे है वो सिर्फ और सिर्फ श्री नीतीश कुमार के दूरदर्शिता और सेवा की भावना का परिणाम है और अगर आप अपने वोट के जरिये इस सोच और लगन का समर्थन नहीं करेंगे तो परिणाम में व्याधि और दिल्ली जैसा हालात ही मयस्सर होगा. आप राजनीतिक संस्थाओं के संयुक्त परिवारवाद से दूर रहे,इनकी एक दूसरे के प्रति कटुता,बिखराव और मिलन एक वायरल बुखार जैसा होता है जिसमे स्वार्थ के एंटीबायटिक का कोर्स पूरा होते ही तापमान सामान्य हो जाता है.आप अपना वोट अपना,अपने समाज,अपने क्षेत्र और अपने देश के विकास और समृद्धि को ध्यान में रख कर दे ना की प्रचार और घोषणा पत्र को देखकर,घोषणा पत्र तो राजनीतिक संस्थाओं द्वारा सार्वजनिक प्रलोभन का संवैधानिक जरिया है जो ना तो कभी पूरा होता है और ना ही पूरा करने के उद्देश्य से जारी किया जाता है! ये तो वयस्क फिल्मो के सीक्वल जैसा होता है जिसमे पहले पार्ट में पोस्टर पर अश्लीलता होगी तो दूसरे पार्ट में फिल्म में,ताकि ऑडिएंस की संख्या बड़ी हो और उनमे से ज्यादा से ज्यादा लोगो को अपने दरियादिली के सम्मोहन में फसाया जा सके?
अच्छी और प्रगतिशील सोच का समर्थन करे, चुनाव चिन्ह तो एक सुक्ष्म धागा है जो एक संस्था के घोषित आदर्शो को बाँध कर रखता है,भाषण में इस्तेमाल शब्द तो बस तत्परता के घोतक है,मतलब कहाँ है इसमें और ना ही इसकी कोई क़ानूनी महत्ता है जिसके जरिये आप ये पूछ सके की आपने ये वादा किया था और पूरा नहीं किया? वैसे दोस्तों शब्दों और उससे जुड़े मतलब को खंगाले तो ध्यान रहे... अरविन्द का समानार्थी शब्द कमल भी होता है....
ऊँगली के सहारे के बिना कलम का जोर भी फीका होता है ठीक उसी तरह वोट का असर और सदुपयोग भी इसी ऊँगली के अधीन है.… इसलिए मतदान अवश्य करे लेकिन सही सोच के साथ और किसी पार्टी या प्रत्याशी की विजय के लिए नहीं वल्कि अपनी जीत सुनिश्चित करे.…प्रजातंत्र का ससक्तिकरन इसी में निहित है!
मैं अपने गृह राज्य से बाहर परप्रांति समुदाय से ताल्लुक रखता हूँ और मेरा उद्देश्य इस आलेख के जरिये किसी व्यक्ति या संस्था को आहत करना नहीं है,मैं तो बस जन सशक्तिकरण के अधिकार अभिव्यक्ति की आज़ादी की अनुभूति करना चाहता हूँ....
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