दिव्य शक्तियों के प्रति आस्था के शब्द
देवता या भगवान् की सेवा करने के नाम पर पुजारियों और मठाधिशों की सेवा के
लिए शुरू की गई ‘देवदासी प्रथा’ श्याम एवं स्वेत रूप में भले ही समाप्त हो
गई जैसी दिखती हो,लेकिन आर्यावर्त्त में शोषित देवदासियां आज भी हैं। हाल
ही में मिलाप (एक गैर सरकारी संस्था) द्वारा आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा
लेने का मौका मिला। आइये थोडा मिलाप के बारे बता दूँ। मिलाप एक ऐसी संस्था
है जो गरीब एवं सामाजिक शोषण के शिकार महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य करती
है.मिलाप द्वारा आयोजित इस सेमिनार से मैं यह जानकार बहुत विचलित हुआ की
देवदासी प्रथा जैसी कुरीति आज भी धर्म और धार्मिक परम्पराओं के नाम पर पूरी
तरह से सार्वजनिक तौर पर हमारे समाज में चल रहा है. देवदासी हिन्दू धर्म
में ऐसी महिलाओं को कहते हैं, जिनका विवाह किसी पुरुष से नहीं...जी हाँ
किसी पुरुष से नहीं वल्कि मन्दिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर
दिया जाता है। इनका काम मंदिरों की देखभाल,नृत्य तथा संगीत सीखना होता है।
परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग के
शिकार का धर्माधिकार भी प्राप्त है। आज जहां महिला अधिकारों को लेकर
आंदोलन हो रहे है,महिला अधिकारों को लेकर सरकारें बन रही है,सरकारें गिर भी
रही है,नारी शोषण विरोधी ससक्त कानून बने और महिला ससक्तिकरण के लिए अनेक
सरकारी योजनाओ के साथ साथ विशेष रूप से महिला बैंक खोले गए बावजूद इसके
कर्नाटक,महाराष्ट्र,आंध्र प्रदेश और मध्यप्रदेश के कई इलाके
ऐसे हैं,जहाँ देवदासी प्रथा धर्म और धार्मिक परम्पराओं के छत्रछाया में
सेवा के नाम पर विलासिता का साधन बन महिला ससक्तिकरण के नाम पर देश की तमाम
मीडिया में हो रहे बहस और जनांदोलन बस औपचारिकता एवं दिखावा सिद्ध करता
है.
धर्म के इस रंगीन रिवाज़ में DJ भी है,VJ भी है और आपके सहारे के लिए टु(TOOH) भी है जो आपकी मदहोश गुस्ताखियों का पूरा ख़याल रखता है। है कोई समाजशास्त्री या कानूनविद् जो इस अद्भुत विवाह प्रथा को परिभासित कर आज के युग में समानता और समलैंगिक अधिकारो के बराबर क़ानूनी वजन दिला सके ताकि न्याय मानवीय मूल्यो के रक्षा से ज्यादा ऐतिहासिक होने पर इतराये। संस्कृति और असंख्य परम्पराओं के अभिभावक इतिहास को देखे तो राजाओं और सामंतों के लिए इस तरह का रिवाज भोग विलास और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान था। सदियां गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण है या यूँ कहे कि फ़िल्म वही है सिर्फ पोस्टर में थोड़ी सी तब्दीली आयी है.
है कोई धर्मगुरु जो अपने धर्म सम्मेलनो में धर्म के इस रंगीन रिवाज़ का विरोध कर इसके लिए कार्य करे? कैसे विरोध करेंगे-धर्म के व्यापारी बने ब्रह्मचारियों को इन रिवाजो के जरिये मनोरंजित होने का धार्मिक विशेषाधिकार जो प्राप्त है.हाल ही में समलैंगिक अधिकारो को लेकर न्यायालय से लेकर संसद तक इस मामले को ऐतिहासिक बनाने में व्यस्त दिखा लेकिन इस प्रकार के धर्म के नाम पर ब्रांडेड शोषण को मानवीय मूल्यो से जोड़ने की न कोई सोचता है और न ही इनके लिए किसी की संवेदना पीड़ा में बदल पाती है... देवदासियों को तो ऐतिहासिक होने का तमग़ा सदियों से है ही.…फिर कोई भी मीडिया इस मुद्दा को क्यूँ अपनाएगा ? इस कुरीति का ना तो नागरिक शास्त्र में जगह है और न ही समाजशास्त्र में,बस एक इतिहास ही है जो आज तक इस कुरीति को इस इस आस में ढो रहा है की कब कोई तारणहार मिले और इस घिनौनी रवायत से शोषित स्त्रियो को आजाद कराये। इनके मानवीय मूल्यो और अधिकारो का ऐतिहासिक होने से ज्यादा सामाजिक होना जरुरी है ताकि ये भी एक आम सामाजिक प्राणी जैसा जीवन व्यतीत सके.मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग से लैस भारतीय प्रजातंत्र में इस तरह के रिवाजो की विद्यमानता इस बात का प्रमाण है की मानवीय अधिकारो की रक्षा के लिए बने ना ना प्रकार के संस्थाएं राजनीती और धर्म के कुचक्र के आगे इतने मजबूर है की मानवाधिकारो का सार्वजनिक एवं ब्रांडेड हनन भी इनको दिखाई नहीं देता ?
सदियों से चली आ रही देवदासी प्रथा धर्म के नाम पर हमारे इतिहास और संस्कृति का एक पुराना और घिनौना अध्याय है और अब इसका क्रिया कर्म होना बहुत ही जरुरी है वर्ना महिला ससक्तिकरण के तमाम सरकारी दावो की विश्वसनीयता सदैव प्रश्न चिन्ह के घेरे में दिखेगी?
धर्म के इस रंगीन रिवाज़ में DJ भी है,VJ भी है और आपके सहारे के लिए टु(TOOH) भी है जो आपकी मदहोश गुस्ताखियों का पूरा ख़याल रखता है। है कोई समाजशास्त्री या कानूनविद् जो इस अद्भुत विवाह प्रथा को परिभासित कर आज के युग में समानता और समलैंगिक अधिकारो के बराबर क़ानूनी वजन दिला सके ताकि न्याय मानवीय मूल्यो के रक्षा से ज्यादा ऐतिहासिक होने पर इतराये। संस्कृति और असंख्य परम्पराओं के अभिभावक इतिहास को देखे तो राजाओं और सामंतों के लिए इस तरह का रिवाज भोग विलास और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान था। सदियां गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यों की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण है या यूँ कहे कि फ़िल्म वही है सिर्फ पोस्टर में थोड़ी सी तब्दीली आयी है.
है कोई धर्मगुरु जो अपने धर्म सम्मेलनो में धर्म के इस रंगीन रिवाज़ का विरोध कर इसके लिए कार्य करे? कैसे विरोध करेंगे-धर्म के व्यापारी बने ब्रह्मचारियों को इन रिवाजो के जरिये मनोरंजित होने का धार्मिक विशेषाधिकार जो प्राप्त है.हाल ही में समलैंगिक अधिकारो को लेकर न्यायालय से लेकर संसद तक इस मामले को ऐतिहासिक बनाने में व्यस्त दिखा लेकिन इस प्रकार के धर्म के नाम पर ब्रांडेड शोषण को मानवीय मूल्यो से जोड़ने की न कोई सोचता है और न ही इनके लिए किसी की संवेदना पीड़ा में बदल पाती है... देवदासियों को तो ऐतिहासिक होने का तमग़ा सदियों से है ही.…फिर कोई भी मीडिया इस मुद्दा को क्यूँ अपनाएगा ? इस कुरीति का ना तो नागरिक शास्त्र में जगह है और न ही समाजशास्त्र में,बस एक इतिहास ही है जो आज तक इस कुरीति को इस इस आस में ढो रहा है की कब कोई तारणहार मिले और इस घिनौनी रवायत से शोषित स्त्रियो को आजाद कराये। इनके मानवीय मूल्यो और अधिकारो का ऐतिहासिक होने से ज्यादा सामाजिक होना जरुरी है ताकि ये भी एक आम सामाजिक प्राणी जैसा जीवन व्यतीत सके.मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग से लैस भारतीय प्रजातंत्र में इस तरह के रिवाजो की विद्यमानता इस बात का प्रमाण है की मानवीय अधिकारो की रक्षा के लिए बने ना ना प्रकार के संस्थाएं राजनीती और धर्म के कुचक्र के आगे इतने मजबूर है की मानवाधिकारो का सार्वजनिक एवं ब्रांडेड हनन भी इनको दिखाई नहीं देता ?
सदियों से चली आ रही देवदासी प्रथा धर्म के नाम पर हमारे इतिहास और संस्कृति का एक पुराना और घिनौना अध्याय है और अब इसका क्रिया कर्म होना बहुत ही जरुरी है वर्ना महिला ससक्तिकरण के तमाम सरकारी दावो की विश्वसनीयता सदैव प्रश्न चिन्ह के घेरे में दिखेगी?
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