दिल्ली में परिवर्तन की राजनीति की ऐसी दुर्दशा होगी किसको पता था... संबिधान भी मजबूर...और विधि का विधान भी...किसको पता था की परिवर्तन की आशा एक तमाशा के रूप में उभरेगा? लोकशाही का ये तमाशा हमें ये सोचने पर मजबूर का रहा है कि विकास का मुद्दा का विकास अब रुक गया है.… या यूँ कहे कि भारतीय राजनीती में विकास एक सोफिस्टिकेटेड मुद्दा हो चला है जिसमे भारतीय जनसँख्या का वही १५-२०% अपमार्केट लोग है जो इस मुद्दे से अपने आप को जोड़ पाते है या कही ऐसा तो नहीं कि भारतीय राजनीती में सत्ता को फैंटसी मानने वाले लोग देश की तमाम मीडिया का दुरूपयोग कर विकास को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत कर महंगाई के सामने विकास को ही भारत के विकास के आगे दोषी मान देश को गुमराह कर रहे है क्योंकि सत्ता का मुख्य ईंधन अर्थशास्त्र यह कहता है कि महंगाई विकास का साइड इफ़ेक्ट है और विकास होगी तो महँगाई बढ़ेगी ही. मोटे मोटे तौर पर ये कहे कि पेट्रोलियम उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाजारो से जोड़ना और सब्सिडी को समाप्त कर आधार योजना के जरिये DBT (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर) सरीखे योजनाओ से उपभोग की विशुद्धता बढ़ाने का प्रयास विकास के इसी साइड इफेक्ट्स का सुधारक उपाय ही तो है तो गलत नहीं होगा।
बचपन में हमारे बुजुर्गों से जब विदेश जाने से सम्बंधित कोई वार्तालाप होती थी तो यही कहते थे अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो बम्बई में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। यह कुछ और नहीं बम्बई के विकसित होने का प्रमाण था.लेकिन आज के हालत में यहाँ कि स्थिति ऐसी है जैसी पाव(पाव बोले तो पावरोटी) के बीच में चटनी के साथ वडा का होता है… ऊपर से प्रतिष्ठा और विरासत और निचे से तेज रफ़्तार जिंदगी का लाइसेंस और बीच में बड़ा जो बड़ी इज्जत से बेसन के लेप के साथ फ्राई होकर भूख की मजबूरी को इज्जत प्रदान कर रहा होता और अब तो प्रतियोगिता ऐसी की यह जंबो के नाम से भी जाना जाने लगा है... हो भी क्यों न सब चीज विकास के दौड़ में है तो फिर मज़बूरी भी पीछे क्यों रहे... मज़बूरी भी अब जंबो हो गया लेकिन विदेश वाली धारणा या अग्रेजी में स्टेटस बोल लीजिये चाहे फीलिंग यह जंबो नहीं बन पाया।
पर आज हमारे अनुज विदेश जाने से सम्बंधित मुद्दे पर सलाह मांगे तो उन्हें यही बोलूंगा अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो दिल्ली में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। आज की तारीख में दिल्ली में वो तमाम संसाधन है जो विदेशो में होता है.रही बात महंगाई की भारत के प्राचीन विदेश के मुक़ाबले भारत के नए विदेश मे सब कुछ सस्ता है.…बिजली का बिल,पेट्रोल से लेकर डीजल तक.…रही बात भ्रष्टाचार की यह मुद्दा भी है और मानसिकता भी और इसके लिए सिर्फ सियासी संस्थाओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता...मौका मिलने पर हम सभी इस पर NOTA का विरोध करेंगे। दिल्ली में जो विकास हुआ है वो भारत के किसी भी शहर के मुक़ाबले अद्वितीय है और इसका नायक कोई और नहीं श्रीमती शीला दीक्षित है.…विकास का जज्बा किसी सियासी संस्था या चुनावी मैनिफेस्टो (जिसका महत्व चुनाव में संबिधान से कम नहीं होता है) में नहीं होता। यह तो किसी व्यक्ति विशेष का जूनून होता जिसकी प्रजाति हमारे हिंदुस्तान की सत्तातंत्र में दुर्लभ ही है।
चमत्कार होगा जरूर यह परिवर्तन रूपी एक टोटका है जो ज्यादातर सत्य नहीं होगा यह तो कन्फर्म है परन्तु सत्य ही होगा ये निश्चित तौर पर IRCTC के प्रतीक्षा सूची जैसा है जिसमे ये खतरा सदैब बना रहता है कि कही यात्रा के ऐन वक़्त पर विदाऊट टिकट न हो जाऊ. चुनाव के बाद भी सरकार न बन सके यह संवैधानिक संकट अपरिपक्व लोकतंत्र के संकेत है जिसमें बहुमत में बदलाव की भावना अभी भी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुई है.पांच साल में एक बार से ज्यादा चुनाव होना देश के अर्थ तंत्र पर एक थोपी हुई मजबुरी है जो किसी भी दृष्टिकोण से न राष्ट्र के हित में है और न ही जनता जनार्दन के हित में. गुस्सा के आगोश में निर्णय सदैब घातक होता है और दिल्ली भी इसी खुन्नस में आज न हार से दुखी है और न जीत से सुखी? वर्त्तमान भुतकाल हो जाने से या भुतकाल वर्त्तमान हो जाने से सब कुछ अचानक से ठीक हो जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है...जो दीखता है वो थोड़ा ज्यादा बिकता है पर टिकता कितना है वह भी सोचना जरुरी है…अगर आप इसको बायस्ड सोच मानते है तो NOTA वाला लोटा भी देखिये पानी से लबालब मिलेगा..
लोकतंत्र में क्रांति प्रतिशोधात्मक नहीं होनी चाहिए…क्रांति हो तो ऐसी हो जो अवगुण के विरोध के साथ सदगुण का सम्मान भी करे…वर्ना कही ऐसा न हो कि शकुनि के प्रतिशोध के महाभारत युद्ध की तरह सबकुछ समाप्त हो जाए और अवशेष के रूप में बचे तो महाभारत की किताब जिसमे धर्म और अधर्म आज भी यही उधेड़बुन में हो कि आखर इस महाभारत में विजयी कौन हुआ ?
बचपन में हमारे बुजुर्गों से जब विदेश जाने से सम्बंधित कोई वार्तालाप होती थी तो यही कहते थे अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो बम्बई में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। यह कुछ और नहीं बम्बई के विकसित होने का प्रमाण था.लेकिन आज के हालत में यहाँ कि स्थिति ऐसी है जैसी पाव(पाव बोले तो पावरोटी) के बीच में चटनी के साथ वडा का होता है… ऊपर से प्रतिष्ठा और विरासत और निचे से तेज रफ़्तार जिंदगी का लाइसेंस और बीच में बड़ा जो बड़ी इज्जत से बेसन के लेप के साथ फ्राई होकर भूख की मजबूरी को इज्जत प्रदान कर रहा होता और अब तो प्रतियोगिता ऐसी की यह जंबो के नाम से भी जाना जाने लगा है... हो भी क्यों न सब चीज विकास के दौड़ में है तो फिर मज़बूरी भी पीछे क्यों रहे... मज़बूरी भी अब जंबो हो गया लेकिन विदेश वाली धारणा या अग्रेजी में स्टेटस बोल लीजिये चाहे फीलिंग यह जंबो नहीं बन पाया।
पर आज हमारे अनुज विदेश जाने से सम्बंधित मुद्दे पर सलाह मांगे तो उन्हें यही बोलूंगा अगर आप विदेश जाने को सोच रहे है तो दिल्ली में कुछ दिन जाकर रह लीजिये,विदेश में एडजस्ट होने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। आज की तारीख में दिल्ली में वो तमाम संसाधन है जो विदेशो में होता है.रही बात महंगाई की भारत के प्राचीन विदेश के मुक़ाबले भारत के नए विदेश मे सब कुछ सस्ता है.…बिजली का बिल,पेट्रोल से लेकर डीजल तक.…रही बात भ्रष्टाचार की यह मुद्दा भी है और मानसिकता भी और इसके लिए सिर्फ सियासी संस्थाओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता...मौका मिलने पर हम सभी इस पर NOTA का विरोध करेंगे। दिल्ली में जो विकास हुआ है वो भारत के किसी भी शहर के मुक़ाबले अद्वितीय है और इसका नायक कोई और नहीं श्रीमती शीला दीक्षित है.…विकास का जज्बा किसी सियासी संस्था या चुनावी मैनिफेस्टो (जिसका महत्व चुनाव में संबिधान से कम नहीं होता है) में नहीं होता। यह तो किसी व्यक्ति विशेष का जूनून होता जिसकी प्रजाति हमारे हिंदुस्तान की सत्तातंत्र में दुर्लभ ही है।
चमत्कार होगा जरूर यह परिवर्तन रूपी एक टोटका है जो ज्यादातर सत्य नहीं होगा यह तो कन्फर्म है परन्तु सत्य ही होगा ये निश्चित तौर पर IRCTC के प्रतीक्षा सूची जैसा है जिसमे ये खतरा सदैब बना रहता है कि कही यात्रा के ऐन वक़्त पर विदाऊट टिकट न हो जाऊ. चुनाव के बाद भी सरकार न बन सके यह संवैधानिक संकट अपरिपक्व लोकतंत्र के संकेत है जिसमें बहुमत में बदलाव की भावना अभी भी पूरी तरह परिपक्व नहीं हुई है.पांच साल में एक बार से ज्यादा चुनाव होना देश के अर्थ तंत्र पर एक थोपी हुई मजबुरी है जो किसी भी दृष्टिकोण से न राष्ट्र के हित में है और न ही जनता जनार्दन के हित में. गुस्सा के आगोश में निर्णय सदैब घातक होता है और दिल्ली भी इसी खुन्नस में आज न हार से दुखी है और न जीत से सुखी? वर्त्तमान भुतकाल हो जाने से या भुतकाल वर्त्तमान हो जाने से सब कुछ अचानक से ठीक हो जाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है...जो दीखता है वो थोड़ा ज्यादा बिकता है पर टिकता कितना है वह भी सोचना जरुरी है…अगर आप इसको बायस्ड सोच मानते है तो NOTA वाला लोटा भी देखिये पानी से लबालब मिलेगा..
लोकतंत्र में क्रांति प्रतिशोधात्मक नहीं होनी चाहिए…क्रांति हो तो ऐसी हो जो अवगुण के विरोध के साथ सदगुण का सम्मान भी करे…वर्ना कही ऐसा न हो कि शकुनि के प्रतिशोध के महाभारत युद्ध की तरह सबकुछ समाप्त हो जाए और अवशेष के रूप में बचे तो महाभारत की किताब जिसमे धर्म और अधर्म आज भी यही उधेड़बुन में हो कि आखर इस महाभारत में विजयी कौन हुआ ?
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