Negative Attitude

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Wednesday, February 20, 2013

हड़ताल- जनाधिकार या जनता के लिए परेशानी

भारतीय मज़दूर संघ और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के जरिए बुलाई गई दो दिन की हड़ताल आज से शुरू हो गयी है। मैं भी ट्रेड यूनियनो की देशव्यापी हड़ताल का पुरा समर्थन करता हूं । लोकतान्त्रिक ढाँचे में हड़ताल भी अभिव्यक्ति की आजादी जैसा है तब जब लोकशाही बधिरशाही हो जाए। यह भी एक जनहित याचिका के जैसा ही है,बस हड़ताल और जनहित याचिका में एक ही अंतर है,हड़ताल आपात स्थिति है और जनहित याचिका पंचवर्षीय योजना। मुंबई छोड़ लगभग पूरा भारत इस ट्रेड यूनियनो की देशव्यापी हड़ताल के जरिये अपनी व्यथा सरकार तक पहुंचाने में मशरूफ है। मुंबई क्यों नहीं?

मेरे ख्याल में हिंदुस्तान का मध्यम वर्गीय समाज सबसे कायर है। वह खुद तो संकोच/भय मे जिता हीं है,दुसरे को भी बाध्य करता है जिने के लिये। मध्यम वर्गीय समाज मुंबई में भी एक विशाल तबका है जो भय पर विजयी होना तो चाहता है लेकिन आगे आकर नहीं? यहाँ की जनता पूंजीपतियों,उद्योगपतियों एवं नेताओं के सांठगाँठ से इस तरह संतुष्ट है जैसे की जनमानस से इनका कोई सम्बन्ध ही न हो। लोकशाही बधिरशाही इसलिय बन गयी है क्योंकी इनकी नीतियाँ वाणिज्य एवं अर्थशास्त्र के हितार्थ ही बनती है और इसका फायदा सीधे तौर पे पूंजीपतियों,उद्योगपतियों एवं नेताओं के संघटन को ही होता है। इन नीतियों से शाही के समक्ष लोक की ऐसी दशा होती है मानो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विपदाओं के यही मुख्य आरोपी है। हड़ताल लोकतंत्र में एक ऐसा अधिकार है जिसमे जनता की धवनि बहुत ऊँचे स्वर में होती है और जो जनमानस के लिए आपातस्थिति स्तर के समाधान की जरूरत के लिए सरकार का ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश करती है।


राजनीतिक एनेस्थीसिया(anesthesia) के व्यसन से मूर्छित सरकार यह भूल गयी है की इस देश में आज भी 70 करोड लोग गरीबी की रेखा से नीचे है। 37 फिसदी बच्चे स्कूल जा नहीं पाते और ऐसे में वाणिज्य को इतनी आसानी से अर्थशास्त्र के साथ पाणीकरण संस्कार करना आम जनता के कठिन जीवन की अग्नि को और प्रज्ज्वलित करना है। लगभग 2 करोड़ संतुष्ट या भयभीत या संकुचित मुबईकर्स अगर इस हड़ताल में आगे आना समय की फिजूलखर्ची समझते है तो कोई बात नहीं लेकिन किसी जनकल्याण से जुड़े आन्दोलन का प्रोत्साहन करना भी आन्दोलन से जुड़ना माना जाएगा,मीडिया भी किसी आन्दोलन में अपनी मौजूदगी इसी तरह दर्ज कराती है।सरकार के खजाने में मुबईकर्स के करानुदान का भारी भरकम हिस्सा होता है और यह मुबईकर्स का हक है की सरकार की मलाई पनीर वाली आर्थिक निति निर्धारण में इनके आवाज़ के लिए भी स्थान आरक्षित हो। कोई भी देश तब तक विकसित नहीं हो सकता जब तक उस देश का एक व्यक्ति भी भुखमरी से अपनी जान गंवाए.सीमित/तंग आमदनी और असंतुलित एवं निरंतर महंगाई इन 70 करोड लोग जो गरीबी की रेखा से नीचे जीने को विवश है उनका क्या होगा? जनता भी अगर जनता की हित का ख़याल रखना शुरू कर दे तो हड़ताल जैसे अभिव्यक्ति की आजादी जनकल्याण के प्रयासों में वरदान सिद्ध होगा!!! जनाधिकारों के सदुपयोग से अधिकारों का भी सम्मान होता है वर्ना इसका हाल पुराने नोटों में RBI Governor के हस्ताक्षर के जैसा होगा???


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