Negative Attitude

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Saturday, April 27, 2013

M.A.R.D

दिल्ली की ५ वर्ष की बच्ची के बलात्कार का मामला और दिल्ली में ही एक अदालत ने 61 वर्षीय व्यक्ति को अपनी प्रेग्नेंट बहू से जबरन संबंध बनाने और उसे सूइसाइड के लिए उकसाने के आरोप में 10 साल कैद की सजा सुनाई। इस प्रकार के मामले इस बात के घोतक है की बलात्कार के ज्यादातर मामलों में परिचित या रिश्तेदार ही मुख्य भूमिका निभा रहे है, इसलिए यह मामला सिर्फ कानून व्यवस्था को कोसने का ही नहीं बल्कि नैतिक मूल्यों और संस्कार का भी है। हमारे सामाजिक ढांचे में कोई बुराई जरूर है। जब कोई महिला अपने घर में ही सुरक्षित नहीं तो वह बाहर कैसे सुरक्षित रह पाएगी।
सामाजिक ढांचे से जुडी बलात्कार रूपी कर्क रोग को दुनिया की कोई भी कानून व्यवस्था सुधार नहीं सकती। दिखाई देने वाले जख्म का उपचार किया जा सकता है लेकिन जो जख्म समाज के रंगीन परदे से ढका हो उसका इलाज सिर्फ और सिर्फ स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था ही कर सकता है,इसके लिए पुलिस और कानून व्यवस्था को पूर्ण रूप से दोषी ठहराना एक तरीके से समाज के रंगीन परदे से ढके खोकली मानसिकता का समर्थन करना है.
विकास और आधुनिकता के नशे में धुत हमारी भारतीय समाज आज नेत्रहीन हो चुकी है.महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की बात आज हम सब कर रहे है लेकिन उसी महल में जहाँ शीला की जवानी,मुन्नी को बदनाम होते देखकर और फिर उसके फोटो को अपने दिल में फेविकोल से चिपकाकर सपरिवार मनोरंजित होते है और अगर इससे भी मन नहीं भरा तो फिर आ रे प्रीतम प्यारे बन्दुक में न तो गोली मेरे, सब आग तो मेरी चोली में रे,जरा हुक्का उठा जरा चिल्लम जला,पल्लू के नीचे छुपा के रखा है,उठा दूं तो हंगामा हो इस उबाऊ जिंदगी को या हमारे सामाजिक समारोहों में चार चाँद तो लगा ही देगा.
आर्यावर्त की संस्कृति और पश्चिमी सभ्यता हमेशा से ही दो अलग मानसिकता रही है और इसका मुख्य कारण है प्रकृति यानि जलवायु ,ऋतु एवं आबोहवा। विकास के फोर्मुले में पाश्चात्यकरण आवश्यक है लेकिन किस हद तक ? पाश्चात्यकरण के बढ़ते प्रभाव व आधुनिकता का भूत आज इस कद्र हावी है कि टेलीविजन में,समारोहों में, फिल्मो में तथा अन्य कार्यक्रमों में महिलाओं को ऐसे अश्लील परिधानों में प्रदर्शित किया जाता है मानो महिलाओं की मानसिक आजादी का मतलब तन को ढकना कम तथा दर्शाना अधिक है। कोई भी विज्ञापन, किसी चैनल की एंकरिंग तथा अन्य कार्यक्रम तब तक पूर्ण नहीं होते, जब तक अश्लील तरीके से तथा अधूरे वस्त्र पहनी हुई लड़कियां उसमें शामिल नहीं होतीं। अब ये लड़कियों व महिलाओं को सोचना चाहिए कि क्या उनकी मान-मर्यादा इतनी सस्ती व बिकाऊ है कि चंद पैसों के लिए उसका हनन हो। महिलाओं को भी ये सोचना होगा की उनका इस्तेमाल किसी वस्तु की तरह न हो। विकास,आधुनिकता एवं पाश्चात्यकरण के त्रिकोणीय समीकरण में स्त्री और स्त्रीत्व का व्यवसायीकरण न हो। कल एक टेलीविजन चैनल पर M.A.R.D {Men Against Rape and Discrimination} नामक महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा से संवंधित सोशल कैम्पेन देखने को मिला। इसका  LOGO है...

इसमें मुछ को मर्द की भावनाओ से जोड़कर एक जागरूकता की अलख जगाने की कोशिश की गयी है. हमारे समाज में मुछ को बड़ी तरजीह दी गयी है और इसको मर्दानगी का प्रतिक माना गया है लेकिन भारत को छोड़ अन्य पश्चिमी देशो में मुछ मर्द का LOGO नहीं है लेकिन वहां महिलाओं की इतनी दुर्गति नहीं है जितनी की हमारे देश में है-क्यों? क्योंकि वहां के कायदे कानून वहां के आबोहवा के अनुसार बनाया गया है. M.A.R.D- ये एक अच्छा प्रयास है लेकिन ये सोशल कैम्पेन सिर्फ मर्दों को जिम्मेदार बना रहा है जबकि हमारी समाजिक संरचना इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है जिसने मुछो को मर्दानगी का थर्मामीटर बनाया है. अगर इस सोशल कैम्पेन का टैगलाइन Society Against Rape and Discrimination(सोसाइटी अगेंस्ट रेप एंड डिस्क्रिमिनेशन ) होता तो शायद समाज को अपनी जिम्मेदारी और बलात्कार जैसे मानवीय अपमान की पीड़ा का एहसास कराने में ज्यादा कारगर सिद्ध होता। किसी भी प्रकार के प्रयास में शुरुआत इसकी दीपक की लौ होती है और इतनी जल्दी रौशनी की आशा भी नहीं करनी चाहिए। विश्व के एक-तिहाई गरीब भारत में हैं, जो रोजाना 1.25 डालर (करीब 65 रुपये) से कम में जीवन-यापन करते हैं और यहाँ दो टाइप का समाज है एक खाप पंचायत और दूसरा खाक पंचायत। हमारे देश का सामाजिक ढांचा आज तक गरीब भारत,खाप और ख़ाक  के बीच समन्वय नहीं बिठा पाया है और अब यह देखना दिलचस्प होगा की हमारा समाज महिलाओं की दुर्गति जैसे संवेदनशील मुद्दे का हल कितनी परिपक्वता से निकाल पाता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य द्वारा किये गए हर अपराध की जिम्मेदारी पुरे समाज को लेनी पड़ेगी,सिर्फ दिल्ली के पुलिस कमिश्नर,कानून व्यवस्था,नेता या सरकार पर दोष मढ़ संगम स्नान का फल नहीं मिल सकता।

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