Negative Attitude

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Thursday, December 13, 2012

दाढ़ी या लालसा


हाल ही में एक प्रमुख बाजार अनुसंधान एजेंसी द्वारा देश भर में 1000 से अधिक भारतीय महिलाओं पर एक दंपति द्वारा साझा अंतरंगता के स्तर पर शाम की छोटी छोटी दाढ़ी के प्रभाव को समझने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया और इस अध्ययन से पता चला की महिलाएं ऐसे पुरुष को पसंद करते है जो सुबह के साथ शाम में भी शेव करते है। इस अध्यन के परिणाम को आजकल पुरे देश में 'SHAVE OR CRAVE' यानि 'दाढ़ी या लालसा' आन्दोलन के रूप में चलाया जा रहा है। कुछ समय पहले ऐसा ही एक सर्वेक्षण अमेरिका में भी हुआ था लेकिन वो पुरुषो के ऊपर किया गया था। इस अध्ययन के तहत ये बात सामने आई कि पुरुषो के मूछों का उनकी सैलरी पर बहुत असर पड़ता है। ये अध्ययन अमेरिकन मुस्टैच इंस्टीट्यूट की ओर से आयोजित कराई गई थी। अध्ययन में पता चला था कि मूंछ वाले अमेरिकन 4.3 क्लीन शेव और बिना दाढ़ी वालों से 8.2 फीसदी ज्यादा पैसे कमाते हैं। इस अध्यन से एक और मजेदार सामने आई थी कि जो लोग मूंछ रखते हैं वो बेहद खर्चीले भी होते हैं मतलब की सफाचट पुरुष कंजूस!!! गौरतलब है कि अगर ये अध्यन सही साबित हुई तो हमारे देश में 'SHAVE OR CRAVE' यानि 'दाढ़ी या लालसा' आन्दोलन की वकालत कर रहे महिलाओं को थोडा तो आघात पहुँचने वाला है।

इस पुरुष प्रधान ब्रह्माण्ड में दाढ़ी, मूंछ पुरुषों की आन और शान का प्रतीक माना जाता रहा है पर आज के आधुनिक युग में इस आन और शान का प्रतीक 
मानो भारत से गायब हो रहे बाघों की तरह आज के चेहरों से विलुप्त होने वाली प्रजाति में शामिल हो चुकी है और अगर समय रहते इसे बचाया न गया तो आपने प्रसिद्ध फिल्म शराबी का वो डाइलोग….. मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी वर्ना न हों जैसी दाढ़ी,मूछों की महिमा का गुणगान कौन करेगा?
इतिहास पर अगर नज़र डालें तो शायद सब से पहली मूछ आदि देव शंकर जी को उपलब्ध थी। दाढ़ी,मूछें तो वास्तव में कुछ गिने चुने देवों को ही प्राप्त थी। युग धीरे धीरे बदलता रहा पर दाढ़ी,मूछों की महिमा सदा ही अपना महत्व रखती रही लेकिन आज के आधुनिक युग में इस आन,बान और शान के प्रतिक लालसा के आगे नतमस्तक होने को मजबुर है। जागो मर्दों जागो..धरोहर दांव पे लगी है। मर्दों के आन,बान और शान के प्रतिक के महिमा पर एक कवि की कविता याद आ रही जो आपको सुनाता हूँ ताकि इस धरोहर को संरक्षित करने की उर्जा मिले और इसे विलुप्त होने से बचाया जा सके....

आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,
बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।
जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,
मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,
कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,
सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण।


क्लीन शेव के इस ज़माने में दाढ़ी,मूछों का प्रचलन निरंतर घट रहा है लेकिन उपयोगिता और महत्व अपनी जगह बरकरार है ..जैसे.. मेरे अनुमान से मूछें कैटेलिटिक कनवर्टर वाला एयर फ़िल्टर है, इस की मदद से अँधेरे में टटोल कर ही पता कर सकते हैं कि मर्द है कि औरत,मूछें मर्दानगी का थर्मामीटर हैं(???), दाढ़ी,मूछें साहस का संचार करती हैं। आज दाढ़ी,मूंछों को जितनी ज़िल्लत देखनी पड़ी है उतनी किसी युग में नहीं, नए युग के फैशन में जब कन्याएं जींस शर्ट पहनने लगी हैं और क्लीन शेव और लंबे बालों का प्रचलन बढ़ा है …तो देख कर सहज ही ये पहचाना भी मुश्किल हो गया है कि ये आखिर कौन सी योनि के मनुष्य है.:-) दाढ़ी,मूँछों का एक लम्बा इतिहास रहा है। पुराने ज़माने में घनी कड़कदार मूँछे पाली जाती थी जिनको मोम आदि से संवारा और दमदार बनाया जाता था। इतिहासकार बताते हैं कि मूँछों पर निंबू खडा करने की प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थीं। अब न वैसी मूँछें दिखाई देती हैं न वैसे जवाँ मर्द! इतिहासकार यह भी बताते हैं कि मुस्लिम काल तक भारत में दाढ़ी-मूँछ का चलन अधिक रहा। अंग्रेज़ों के आगमन के साथ ही हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ पुरुष के चेहरे से दाढ़ी-मूँछ भी गायब होने लगे। तभी तो हैदराबाद के अंग्रेज़ रेसिडेंट किर्कपैट्रिक ने मुस्लिम नवाबों की तरह जब मूँछे रखना शुरू किया तो बात इंग्लैंड तक पहुँच गई कि कहीं वो मुसलमान तो नहीं हो गए हैं और नतीजा यह हुआ कि उन्हें इंग्लैंड लौटना पड़ा।फिल्म जगत में भी मुग़लेआज़म की अकबरी मूंछों से लेकर करण दीवान व राजकपूर कट मूँछें प्रसिद्ध हुईं।अब तो दाढ़ी-मूँछ देश या प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर भी जानी जाती हैं; जैसे, फ़्रेच, जर्मन या फिर लिंकन,लेनिन जैसी दाढ़ी।

मुगल शासनकाल के दौरान हेरात से रंगून तक दक्षिण एशिया में अदालत और लोगों के कपड़े पर मुगल पहनावे का प्रभाव था और चमकदार लाल तुर्की टोपी 1950 के दशक तक हॉलीवुड फिल्मों में मुसलिम पहचान का निर्धारक दृश्य हुआ करता था. जब तक कि तुर्की में सुधारवादी मुस्तफा कमाल पाशा ने इसे मध्यकालीन अतीत का प्रतीक मानते हुए बंद नहीं कर दिया. ब्रिटिश ने हमें पैंट दिया, जिसके लिए मैं खासकर उनका शुक्रगुजार हूं. यह मेरे पूर्वजों की धोती और लुंगी के मुकाबले व्यावसायिक तौर पर काफी आरामदायक है, हालांकि अब मैं एक पीड़ित की पीड़ा वयां कर रहा हूँ। ब्रिटिश ने अपने साम्राज्य और बड़े भू-भाग को ड्रेस कोड दिया. अमरीका ने भोजन दिया.यह फास्ट था,लेकिन फूड था.फास्ट लाइफ की संजीवनी.. यह लोकतंत्र और धनतंत्र के बीच बढती मित्रता का परिणाम है. ऐसा ही ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी दौर के समय था. ब्रिटिश खाने को विरोधाभासी कह भी सकते हैं और नहीं भी, लेकिन यह जठराग्नि के लिए डिजाइन किया गया था, ना कि स्वाद के लिए. दूसरी ओर अमरीकी कपड़े के महत्व को नहीं समझते. जींस को अमरीका का योगदान करार देना इस बात का विज्ञापन करना है लेकिंग मैं इसका प्रसार करूँगा. अमरीका ने ही अपने दौर में मोटापे के लिए दुनिया पर कब्जा करने के लिए बर्गर बनाया.आप यह बर्गर हांगकांग में पार्टी की बैठक या मक्का में हज के बाद या इलाहाबाद में गंगा स्नान के बाद खा सकते हैं. आप जहां भी जायें बर्गर आपका पीछा करता है...बिलकुल फेविकोल टाइप चिपकु ...

स्टाइल की कीमत है, इसे खरीदा जा सकता है परन्तु संस्कृति अनमोल है. संस्कृति मौजूदा आधुनिक जरूरतों, मजबूरियों या आकर्षणों से अधिक गहरी है और इसका उदहारण कोई और नहीं वल्कि हमारा भारत है.आज भी हम ज्यादातर भारतीय अपनी अंगुलियों से ही खाते हैं न की छुरी-कांटे से। दसवें गुरु गोविंद सिंह ने 'खालसा' (शुद्ध) परंपरा की स्थापना की। खालसाओं के पांच अनिवार्य लक्षण निर्धारित किये गये, जिन्हें 'पाँच कक्के' या 'पाँच ककार' कहते हैं, क्योंकि ये पाँचों लक्षण 'क' से शुरू होते हैं, जैसे- केश, कंधा, कड़ा, कच्छा और कृपाण। ये पाँचों लक्षण एक सिक्ख को विशिष्ट पहचान प्रदान करते हैं।

क्लीन शेव रखना है या दाढ़ी मूंछ यह अपने अपने सोच पर निर्भर करता है पर लालसा के आगोश में निर्णय लेना खतरों भरा हो सकता है। सावधान..सावधान..सावधान..जागो मर्दों जागो..
 

1 comment:

  1. प्रशंसनीय, साधुवाद !!

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