Negative Attitude

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Saturday, July 14, 2012

साउन्ड्स ग्रेट व्हेन यू नो व्हाट इट मीन्स

जैसा की हम सब भली भांति अवगत है की मानव भाषा का मूल अभी तक अस्पष्ट है और शायद हमेशा के लिए अस्पष्ट ही रहेगा. आज दुनियाभर में लगभग ५००० भाषाएँ  बोली जाती है और इनमे से लगभग २५-३०% भाषाएँ  अकेले अफ्रीका में बोली जाती है. अलग अलग भाषाओँ को साझा शब्द या ध्वनियों या व्याकरण निर्माण के द्वारा एक दूसरे से जुड़े होने के कारण उनको अलग अलग समूहों में बांटा गया है.अल्फाज़,शब्द या वर्ड इन्ही भाषाओ के घटक संरचनाये हैं, इनके गठबंधन से ही वाक्य बनते है और फिर इनके ही अनुशाषित तरीके से मानकीकरण को पार्ट्स ऑफ़ स्पीच कहते है. हमारे देश में मुख्यतः दो समूहों की भाषाए बोली जाती है. एक इंडो-आर्यन भाषाएँ और दूसरा द्रविडियन भाषाएँ.सरकारी आंकड़ो के मुताबिक हमारे देश की कुल जनसँख्या का लगभग तीन हिस्सा इंडो-आर्यन भाषा बोलता है और एक हिस्सा द्रविडियन भाषा.परन्तु दुर्भाग्यवश हमारे देश में भाषाओ का भेदभाव जिसके परिणामस्वरूप प्रांतवाद और अंततः मानवीय भेदभाव सिर्फ इंडो-आर्यन लैंगुएज बोलने वाले समूह के बीच ही है.अब गौर करने वाली बात यह है की राजनीतिज्ञों द्वारा भाषाओ से इंसानों का वर्गीकरण लोकतांत्रिक व्यवस्थाओ के लिए निस्संदेह एक भद्दा कलंक है और स्पष्ट रूप से कहे तो यह हमारे देश के अन्दर भाषाओ पे राजनीती करने वाले लोकतांत्रिक संप्रभुता के विद्रोहियों का समूह विकसीत हो चुका है. और इसके प्रति सरकार का लचीला रवैया इसके स्तम्भ को निरंतर मजबूत कर रहा है. अगर इससे परे हो मानवीय जरूरतों और उनके विकास की ओर ध्यान न दिया गया तो वह दिन बहुत समीप है जब यह राजनितिक महामारी का रूप जरूर धारण करेगा जिसको नियंत्रण कर पाना असंभव सा होगा.राजनीतिज्ञ राज्यस्तरीय विकास की कमियां छुपाने के लिए अपने जनता,प्रान्त के लोगो को एक दुसरे के प्रति वैमनस्य फैलाकर कर गुमराह करते है. प्रवर्जन विकसित समाज का सूचक है ओंर अगर इसका भी राजनीतिकरण कर दिया जाए तो विकसित देश,विकसित समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती. ये तो बस गरीबी,बेरोजगारी जैसे राजनितिक मुद्दे बनकर ही रह जायेंगे और हर पांच वर्षो के बाद हम सब नई नई धुनों पे थिरका करेंगे.जीवन की वजूद ही भाषा है और वजूद ही प्रकृति है और हम प्रकृति के  बटवारे पे तुले  है.सच तो यह है की शब्द,अल्फाज और इसके साथ क्रीडा न जाने कितना आनंदित करती है और ठीक उतना ही विचलित भी. फिर भी हम इन वेशकीमती अल्फाजो को कितना नजर अंदाज़ करते है. पता है हम इंसानों ने ही ये लफ्ज एक दूसरे के साथ संवाद के लिए बनाये है जब दिक्कत होगी एक लकीर और खैंच देंगे. हमारे देश की अनगिनत भाषाए और एक दुसरे से विशिष्ट होने की कोशिश वाले अनगिनत शब्द ही मुख्य आरोपी है जिनके वजह से भारत की ३५ कड़ियाँ आज तक भरतीय होने के वजाय अपने प्रान्त से मुखातिब होने में ज्यादा गौरवान्वित होते है.एक भारतीय सिनेमा और गीत ही हमारे देश के ३५ कड़ियों को साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं.इसकी की विविधता इस बात के प्रमाण है जिसने कोलावेरी डी, एक द्रविडियन शब्द के साथ पुरे भारत को जोड़ दिया. वर्ना हम देवनागरी लिपि को ही ठीक से स्वीकार नहीं कर पा रहे है द्रविडियन शब्दों को कैसे करते. संगीत को देखिये ये कितना अद्भुत ज्ञान है जो सभी भाषाओ, शब्दों को अपने आगोश में किस तरह समेटते हुए एक मखमली हलचल बनकर कानो से चलकर मस्तिस्क को छूकर सीधे ह्रदय को लग जाती है.भारतीय सिनेमा और संगीत की रचनात्मकता वो चाहे किसी भी भाषाओं या शब्दों से बने हो ६०-७० वर्ष पुराने गानों को भी सुनने को मजबूर कर देती है जिनको आप, हम और सबलोग गोल्डेन इरा भी कहा करते है. संगीत की शुद्धता ही हमें उन लफ्जो को गौर करने पर मजबूर कर देती है. संगीत की सच्चाई और व्यावहारिकता ही इसके साथ आलंगित शब्दों,अल्फाजो को रूहानी बना देती है.आइये संगीत के कुछ पंक्तिया गुनगुना कर अपनी याद्दास्त ताज़ा करते है और समझने की कोशिश करते है की  संगीत के शहद की ये मधुमक्खियाँ जोडती है या तोडती है.....

शाम-ऐ-गम की क़सम आज गमगीं है हम
आ भी जा आ भी जा आज मेरे सनम
शाम-ऐ-गम की क़सम
दिल परेशान है रात वीरान है 


६० साल पुराने इस गीत के सारे अल्फाज़ उर्दू के है पर इसकी सच्चाई,भावनाएं पुरे देश को आज भी सुनने को विह्वल कर देती है.

चलते चलते
यूँही कोई मिल गया था
सरे राह चलते चलते
वहीँ थमके रह गयी है
मेरी रात ढलते ढलते 


यूँ तो 5० साल पूराने इस फिल्म का नाम पूरी तरह से एक उर्दू शब्द है पर इस गीत के ज्यादातर बोल हिंदी के है.हमारे दक्षिण भारत के कई मित्र आज भी इस गीत को सुनने को बेताब रहते है.ये तो संगीत के साथ गर्भवती हुए इन शब्दों की निश्छल दीवानगी है जो कई सीमाओं को एक कर देने का कूबत रखती है.

Shining in the shade in sun like a pearl up on the ocean
Come and feel me
Haan Feel me
Shining in the shade in sun like a pearl up on the ocean
Come and heal me
Comon Heal me


अब इस गीत को देखिये यह शब्द नहीं भाषाओ की क्रांति हिंगलिश है.तीन साल पुरानी मोडर्न युग के अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी फिल्म का ये गीत पश्चिमी सभ्यता वाली भाषा की रंगीनियत को प्रदर्शित करता है और साथ साथ आपको यह भी एहसास दिलाता है की प्रीत की अभिव्यक्ति किसी एक भाषा का मुलाजिम नहीं है.

पानी दा रंग वेख के
अंखियाँ जो हंजू रुल दे
माहिया न आया मेरा
रान्झाना न आया मेरा
आंखां दा नूर वेख के अंखियाँ जो हंजू रुल दे

  
अति महत्वकांछि विषय पे आधारित फिल्म के इस गीत के सारे अलफ़ाज़ गुरुमुखी लिपि के है पर आजकल यह पुरे देश का मेगाहिट सोंग है.शब्दों की समानता और उर्दू के अल्फाजो से सुसज्जित ये लिपि अनेकता में एकता करने को बेताब है.श्रावण का रंगीन महीना और झमाझम वारिश में भी हॉट है..

चढ़ी मुझे यारी तेरी ऐसी
जैसे दारु देसी
खट्टी मीठी बातें हैं नशे सी
जैसे दारु देसी 


दो दिन पहले रिलीज हुई कोकटेल फिल्म का ये गाना किसी कोकटेल से कम नहीं हिंदी के इन अल्फाजों को मद्रास के एक सज्जन ने अपना आवाज़ दिया है.लेकिन ये गीत पुरे देश में न पीनो वालो को भी मैखाने का रास्ता इख़्तियार  करा सकता है.सावधान!!!

मेरा कहना सिर्फ यही है की दुनिया की कोई भी भाषा इंसानों को जोड़ने के लिए बनी है न की तोड़ने के लिए.भाषाओ का परस्पर सम्मान ही इंसानियत का सम्मान है और एक दुसरे का सम्मान करना एक सभ्य समाज की संस्कृति जो हम सब हिन्दुस्तानी फक्र के साथ कहते भी है...हैव ए ग्रेट वीकेंड...:-)


4 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है राहुल....
    सच में भाषाओं की बहुत बड़ी दीवार खड़ी कर रखी है हमने....

    अनु

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  2. बहुत अच्छा ब्लाग है । घन्यवाद ।

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  3. धन्यवाद!मार्कन्ड जी..

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