भारत की जनगणना- हमारी जनगणना हमारा भविष्य उदघोष साथ विगत वर्ष फरवरी माह में समपन्न हुआ. इन्ही आंकड़ो के आधार पर हमारी सरकार कल्याणकारी योजनाये तैयार किया करती है हालाँकि यह कहना भी गलत नहीं होगा की अन्य सरकार प्रबंधित योजनाओ के तरह जनगणना के आंकड़े भी त्रुटियों और असाबधनियो से भरी हुई है. खैर यह एक अलग मुद्दा है. समूचे देश में हाउसलेस - गरीब खानाबदोशो की जनगणना २७ एवं २८ फरबरी २०११ की रात को की गयी. शायद भारत की जनगणना 2011- हमारी जनगणना हमारा
भविष्य गृहविहिनो के लिए प्रकाशवर्ष साबित हो क्योंकि आजादी के ६४ वर्ष बाद पहली बार इन अनगिनत हाउसलेस - गरीब खानाबदोशो की संख्या का सरकारीकरण होने जा रहा है जो की जनगणना विभाग का एक सराहनीय एवं अविस्मरनीय प्रयास माना जा सकता
है. मानव विज्ञानियों की माने तो इस जनगणना से पूर्व भारत में लगभग 500 समूहों में बटे खानाबदोशो की कुल जनसंख्या ६-८ करोड़ थी जो की देश की कुल आबादी का ५-६ प्रतिशत है. मतलब हर १०० व्यक्ति में से ५-६ व्यक्ति मनुष्य तो है पर मनुष्य के सारे अधिकारों से वंचित. गृहविहीन मतलब न स्थान न पहचान और फिर क्या समस्त सरकारी जन कल्याण की योजनाओ के लिए अयोग्य.शास्त्र कहते है बड़े भाग मनुष्य तन पाबा पर इन गरीब बेघरो के लिए मनुष्य जीवन मानो किसी ऋषि मुनियों के कठोर श्राप से कम नहीं,कब कोई सामाजिक प्राणी आये इनके श्रापों को मुक्त करे. सिर्फ Census House के परिभाषा में संशोधन और गणना मात्र से ही इन गरीब बेघरो की भरी तादाद का उत्थान नहीं हो सकता, इनको जरूरत है स्थान और पहचान की, सिवाय इसके इनकी गरीबी ब्रांडेड गरीबी ही बनकर रह जाएगी.विकशित देशो के द्वारा विकाशशील देश जैसे संबोधन से बेशक हम फुले नहीं समां रहे हो परन्तु इस असंख्य बेघरो का समूह भारत के विकाशशील होने की बात किसी छलाबे से कम नहीं लगता है. ऐसा प्रतीत होता है,अंततः सरकारी नाकामी और विकास की आधुनिक औषधि ट्रिपल P (Public Private Partenership-पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) टाइप का फ़ॉर्मूला ही इन अनगिनत बेघरो के उत्थान को गति प्रदान करेगा.
है. मानव विज्ञानियों की माने तो इस जनगणना से पूर्व भारत में लगभग 500 समूहों में बटे खानाबदोशो की कुल जनसंख्या ६-८ करोड़ थी जो की देश की कुल आबादी का ५-६ प्रतिशत है. मतलब हर १०० व्यक्ति में से ५-६ व्यक्ति मनुष्य तो है पर मनुष्य के सारे अधिकारों से वंचित. गृहविहीन मतलब न स्थान न पहचान और फिर क्या समस्त सरकारी जन कल्याण की योजनाओ के लिए अयोग्य.शास्त्र कहते है बड़े भाग मनुष्य तन पाबा पर इन गरीब बेघरो के लिए मनुष्य जीवन मानो किसी ऋषि मुनियों के कठोर श्राप से कम नहीं,कब कोई सामाजिक प्राणी आये इनके श्रापों को मुक्त करे. सिर्फ Census House के परिभाषा में संशोधन और गणना मात्र से ही इन गरीब बेघरो की भरी तादाद का उत्थान नहीं हो सकता, इनको जरूरत है स्थान और पहचान की, सिवाय इसके इनकी गरीबी ब्रांडेड गरीबी ही बनकर रह जाएगी.विकशित देशो के द्वारा विकाशशील देश जैसे संबोधन से बेशक हम फुले नहीं समां रहे हो परन्तु इस असंख्य बेघरो का समूह भारत के विकाशशील होने की बात किसी छलाबे से कम नहीं लगता है. ऐसा प्रतीत होता है,अंततः सरकारी नाकामी और विकास की आधुनिक औषधि ट्रिपल P (Public Private Partenership-पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) टाइप का फ़ॉर्मूला ही इन अनगिनत बेघरो के उत्थान को गति प्रदान करेगा.
आज इन्ही विचारो के साथ निगेटीव एटिटयुड उर्दू के एक नज़्म मुफलिसों की ईद पेशे ए खिदमत कर विदा लेता है...शुभ रात्रि..:-)
अहल-ए-दबल में धूम थी रोज़-ए-सईद की
मुफलिस के दिल में थी न किरण भी उम्मीद की
मुफलिस के दिल में थी न किरण भी उम्मीद की
इतने में और चरख ने मत्ती पलीद की
बच्चे ने मुस्कुरा के खबर दी जो ईद की....
बच्चे ने मुस्कुरा के खबर दी जो ईद की....
आँखें झुकी की दस्त-ए-तीही पर नज़र गई
बच्चे के वल-वलो ने की दिलो तक खबर गई......
दोनों ने हुजूम-ए गम से हम-आगोश हो गए
इक दूसरे को देख के खामोश हो गए...........
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