श्री बालासाहेब ठाकरे क्यों एक असाधारण नेता थे ? आइये इस बात पर थोड़ा विस्तार से प्रकाश डालते है।
ऐतिहासिक तौर पे मुंबई हमेशा से ही पश्चिमी सभ्यता के रंग में सराबोर एक सार्वलौकिक शहर रहा है। इतिहास बताता है की बॉम्बे में 125 साल तक पुर्गालियों ने शासन किया। सन 1662 में पुर्तगाल की राजकुमारी (कैथरीन ब्रगान्ज़ा) नें चार्ल्स द्वितीय (इंग्लैंड के राजा) से शादी कर ली और उसके पश्चात पुर्गालियों ने दहेज़ के रूप में मुंबई शहर को ब्रिटिश हुकूमत को उपहार दे दिया। फिर ब्रिटिश हुकूमत ने इसे एक प्रमुख बंदरगाह के रूप में विकसित किया जिससे यह एक विशाल व्यापारिक शहर के रूप में विकसित हुआ और18वीं सदी के मध्य तकबॉम्बे में मानो पुरे देश से प्रवासियों की बाढ़ आ गयी।1947 में भारत आजाद हुआ और कुछ क्षेत्रो के विस्तार के साथ बॉम्बे प्रेसीडेंसी से बॉम्बे स्टेट का निर्माण हुआ। इसी समय एक अलग राज्य महाराष्ट्र(बॉम्बे सहित) के लिए संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन अपनी ऊंचाई पर था और अंततः इस आन्दोलन ने 1 मई 1960 को एक मराठी भाषी राज्य महाराष्ट्र का जन्म दिया और बॉम्बे इसकी राजधानी हुई। स्पष्ट है मुंबई में प्रवर्जन 200 साल पहले से हो रही है और जब मराठी भाषी राज्य महाराष्ट् बना तब भी मुंबई के सार्वलौकिक शहर होने की कारण मराठी भाषा अल्पसंख्यक ही था। प्रमाण के तौर पर सरकारी आंकड़े देखे जा सकते है।श्री बालासाहेब ठाकरे उस समय शायद स्वतंत्र हुए भारत की राजनितिक बेचैनी,असुरक्षित सामाजिक परिवेश और मुंबई की व्यवसायिक हैसियत को अच्छी तरह समझते थे और महाराष्ट्र के एक अलग मराठी भाषी राज्य के निर्माण की संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के जज्बे के आँचल में उन्होंने यह चिन्हित कर लिया था की मराठी माणूस को मानुस की विशाल भीड़ से अलग करना है और मराठी भाषी के नाम पर बनी राज्य महाराष्ट् और मराठी भाषी जनता को एक अलग पहचान दिलानी है। और अपने इसी उद्देश्य के साथ पहले अपने कार्टून साप्ताहिक 'मार्मिक' के माध्यम से, वह गुजराती, मारवाड़ी एवं दक्षिण भारतीय के मुंबई में बढ़ते प्रभाव के खिलाफ अभियान चला मराठी माणूस को मानुस की विशाल भीड़ से अलग करने की खुलेआम नींव डाली और फिर 1966 में शिवसेना पार्टी का गठन किया। श्री बालासाहेब ठाकरे ने एक मंच दिया जहाँ मराठी मराठी माणूस अपने अधिकारों के लिए लड़ सके। अगर लोकतंत्र नहीं तो ठोकतंत्र। उन्होंने मुंबई में झुनका भाकर से लेकर पुरे महाराष्ट्र में सरकारी नौकरी तक मराठी माणूस का मिलकियत सुनिश्चित किया। बालासाहेब ने राजनीती में जो भी बोला,किया या इनसे जुड़े जो भी विवाद हुए उसकी एक ही केन्द्रबिदु रही है और वह है मराठी माणूस,मुंबई,महाराष्ट्र प्रेम। बालासाहेब की इसी राजनीती ने मराठी माणूस का मनोबल बढाने के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी सुनिश्चित किया। बालासाहेब की मराठी माणूस प्रेम ने राजनीती का एक अलग सूत्र प्रांतवाद एवं भाषावाद की राजनीती का भी आविष्कार किया.यह बेशक लोकतान्त्रिक भावनाओं को दूषित करता है जो सदैव बहस का मुद्दा बना रहेगा परन्तु अविष्कारों और कुछ अलग हटकर करने की इस युग में बालासाहेब की राजनीती का यह सूत्र काबिल-ए तारीफ है। हमारे देश में राजनीती को तो लोग सदैब हीन दृष्टिकोण से देखते आयें है लेकिन लोकतंत्र में भले ही राजा का चयन जनता करती है पर राज करने के लिए नीति तो अपनानी ही होगी और यही राजनीती किसी के लिए गन्दी,अहितकारी होगी तो किसी के लिए अच्छी,हितकारी भी। भाषा के लिहाज से मुंबई की स्थिति आज भी पूरी तरह से सार्वलौकिक ही है। आज भी मुंबई की कुल जनसंख्या में मराठी माणूस और गैर मराठी माणूस का अनुपात लगभग आधा आधा है। परन्तु 1960 के अपेक्षा मराठी माणूस का यह अनुपात काफी बेहतर है। मुंबई विरासत से ही विकसित है और शायद इसीलिए इसे मैक्सिमम सिटी भी कहा जाता है। और बालासाहेब इस बात को बखूबी जानते थे की विकास की राजनीती से ज्यादा कारगर है मानुस से मराठी माणूस की सियासत और तभी राजनीती की लम्बी सफ़र तय की जा सकती है। श्री बालासाहेब ठाकरे की इसी दूरदर्शी सोच से मराठी मानुस राजनीती को इतनी उर्जा मिली जिसका असर 46 वर्षो तक रहा औरश्री बालासाहेब ठाकरे की अंतिम विदाई में शामिल लोगो की संख्या इस असीम उर्जा का प्रमाण है।
एक क्षेत्रीय पार्टी द्वारा विशुद्ध क्षेत्रीय राजनीती की यह एक मिसाल है। बालासाहेब की राजीनीति चिन्ह धनुष तीर से कटाछ भरे जो भी तीर निकले उससे किसी परप्रांती के नुक्सान होने के वजाय ज्यादा फायदा मराठी माणूस की सियासत को हुआ और समय समय पर निकलने वाली ये कटाछ भरे तीर उनकी एक रणनीति का हिस्सा था ताकि मराठी माणूस और उससे जुडी सियासत को उर्जा मिलती रहे। उन्होंने क्षेत्रीयता के ऊपर कभी राष्ट्रीयता को हावी होने नहीं दिया परन्तु राष्ट्रीयता को क्षेत्रीयता की शक्ति का एहसास समय समय पर पुरे देश को कराते रहे। आप मेरे इस आलेख से चाहे जो मतलब निकाले या प्रतिक्रिया दे परन्तु बालासाहेब ने क्षेत्रीय पार्टी द्वारा विशुद्ध क्षेत्रीय राजनीती की जो अनूठी मिशाल पेश की है वो राजनीती के नुमाइंदों की स्मृति में हमेशा स्थापित रहेगा। आज हमारे देश में कई क्षेत्रीय पार्टियाँ क्षेत्रीय होने का दावा करती है पर आज विशुद्ध रूप से कोई भी पार्टी क्षेत्रीय हितो के लिए कार्य नहीं कर रही है। अगर कोई पार्टी अपने आप को क्षेत्रीय पार्टी मानती है तो उसे समर्पित होकर क्षेत्रीय हितो के लिए कार्य करना भी चाहिए। क्षेत्रीय मुद्दों की पहचान कर और फिर उसके उत्थान के दृढ संकल्प के साथ उसे आगे भी ले जाना चाहिए। लेकिन आज तो हर पार्टी के पास रेडीमेड मुद्दा है और होटल के मेन्यू के तरह हर दिन परिवर्तित होता रहता है। पहले क्षेत्रीय पार्टियाँ क्षेत्रीय होने की प्रपंची दावे के साथ जनमत हासिल करती है और जनमत मिलते ही उनका ध्यान लालकिले की ओर चला जाता है। आम जनता फिर अपने आप को ठगा महसूस कर दिल्ली के छोले भठूरे को पांच साल तक खाने को मजबूर हो जाती है। अब तो रेडीमेड मुद्दा का सरकारीकरण भी हो गया है जब चाहिए RTI के जरिये मुद्दे निकालिए और हर रोज मीडिया के जरिये सिर फट्व्वल कीजिये और केला गणराज्य के मैंगो मैन को उल्लू बनाते रहिये। ठोस मुद्दे किसी के पास नहीं है पर राजनीती करनी है और इसके लिए पांच साल तक मैं अच्छा और तू बुरा में पुरे देश को उलझा कर रखना से अच्छा उपाय क्या हो सकता है? अगर बालासाहेब ने मराठी माणूस और मराठी भाषा के आधार पर विभाजन की राजनीती की तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है,हमारे देश में राजनितिक पार्टियां चाहे वह जिस दर्जे की हो उनके पास आज जो भी मुद्दे है वे सभी किसी न किसी रूप से विभाजन के सूत्र पर ही केन्द्रित है फिर वह चाहे धर्म का हो या जाती का हो या फिर भाषा का हो? जातियों और अल्पसंख्यको में आरक्षण इस बात के साक्ष्य है और विभाजन तो विभाजन ही माना जाएगा चाहे उसकी शक्ल कैसी भी हो?
मुद्दे को पहचानकर राजनीती करने से ही क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दोनों लक्ष्य प्राप्त किये जा सकेंगे नहीं तो विकास की डूगडुगिया संगीतमय होने के बाबजूद सुननेवाला कोई नहीं होगा,शहर में ऊँचे ऊँचे माल तो होंगे पर खरीदार नहीं होगा ?अपने प्रान्त के अवाम का नाम ऊँचा कैसे हो इसकी राजनीती होनी चाहिए और इसके लिए बालासाहेब की राजनीती से सिख ले,मुद्दे स्वतः ही दिखने लगेंगे! मैं भी परप्रांती हूँ और परप्रांती संबोधित होने से दुखी होता हूँ पर मेरा ये क्षोभ उन क्षेत्रीय पार्टियों के लिए है जो क्षेत्रीय वस्त्र पहन कर राष्ट्रीय धुन पर थिरक रहे है जिनको टीवी,टेबलेट,इन्डक्शन कूकर और विशेष राज्य के दर्जे के अतिरिक्त आम नागरिक से जुड़ा और कोई मुद्दा दिखाई नहीं देता? इन राजीनीतिक नुमाइंदों को या तो सोच की लिबास बदलनी होगी या फिर थिरकने वाले धुन? दोमुही राजनीती देखकर दम घुंटने लगा है अब
but this has been going on from ages , since the days of the RAJ the indian leaders did the same , os we shud have got used to it by now ..
ReplyDeleteBikram's