Negative Attitude

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Wednesday, September 16, 2015

भाषा-आधारित आरक्षण

१४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया था कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर सन् १९५३ से संपूर्ण भारत में १४ सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष भी हिन्दी दिवस मनाया गया एवं विशेष तौर पर कई वर्षो बाद विश्व हिंदी सम्मलेन का आयोजन भी हुआ जिसमे प्रधानमंत्रीजी ने हिंदी के सम्मान में लम्बा चौड़ा भाषण दिया लेकिन निचे दिए गए आज के अख़बार दैनिक यशोभूमि में मुद्रित समाचार के इस अंश को देखिये की हिन्दी दिवस को बीते हुए अभी ४८ घंटे भी नहीं हुए थे और इस राजभाषा को उसी के गणराज्य में राजकीय तौर पर अपरोक्ष रूप में किस तरह उपेक्षित किया जा रहा है.हिन्दी भाषा बोलने के अनुसार से अंग्रेज़ी और चीनी भाषा के बाद पूरे दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी भाषा है।



बीजेपी शासित महाराष्ट्र सरकार में शिव सेना के कोटे से बने परिवहन मंत्री श्री दिवाकर रावते का यह तर्क है ऑटो चलाने वालो को स्थानीय भाषा का ज्ञान हो जिससे वो उपभोक्ता से आसानी से बात कर सके.अगर स्थानीय भाषा और उपभोक्ता सेवाओं की इनको इतनी ही चिंता है तो इन्हे ये भी सुनिश्चित करना चाहिए की राज्य के प्रत्येक अस्पताल के डॉक्टरों को भी मराठी भाषा का ज्ञान हो! बड़ी बड़ी टैक्सी कम्पनियो को टैक्सी परिचालन के लिए बृहत् पैमाने पर परमिटों के आबंटन पर क्यो यह राजकीय फ़तवा लागु नहीं होता है? शायद कुछ टैक्सी कम्पनियो के राजनैतिक ताल्लुकात इतने प्रभावशाली है जिसमे समाज कल्याण की सोच और उससे जुडी व्यवस्था का कद छोटा बन जाता है! 

भाषा के नाम पर संवैधानिक तौर पर अमान्यताप्राप्त आरक्षण एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था प्रदत्त तानाशाही है जिसका मक़सद सिर्फ और सिर्फ समाज का ध्रुबीकरण कर भावनात्मक तौर पर वोट बैंक तैयार करना है.हमारे देश में जातिगत आरक्षण ने पहले से ही समाज को कई टुकड़ो में विभाजित कर रखा है और ऊपर से इस तरह का सरकारी फ़तवा समाज कल्याण के लिए भाषा के नाम पर जबरन थोपी हुई राजनैतिक कृपा दृष्टि के रूप में मजबुरी है जो जन कल्याण हेतु संबिधान प्रदत्त अधिकारो को पक्षपात पूर्ण बनाता है।

भारतीय लोकतंत्र में बात बात पर आरक्षण या आरक्षण से मिलता जुलता कानून राजनैतिक प्रतिस्पर्धा में वोट मांगने और वोट बैंक बनाने की दोहरी राजनीति की मज़बूरी है या फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में दूरदर्शी सोच का आभाव, स्थिति कैसी भी हो,समाज को पक्षपातपूर्ण सोच के आधार पर बांटकर समाज का विकास नहीं किया जा सकता वल्कि इससे तो हम अपनी समाज की परिधि को छोटा और संकुचित कर रहे है ,इसमें जन कल्याण और विकास की बात सोचना भी मुर्खता है।

Tuesday, September 1, 2015

बिहार चुनाव २०१५ विशेष...

बिहार चुनाव २०१५ विशेष....

फेसबुक पर एक दिलचस्प पोस्ट

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[ PHIREY POOCHHTE HAIN AUR TEENTHO SAWAL. BUJHIYE NITISSJI. BIJI CHAL RAHE HAIN TOH CHHOR DIJIYEGA

1. Kawhte hain ke Modiji ka Rs 1,25,000 crore ka Bihar package bhote ke liye ghoos hai aur Bihaar ki Janata isey dhikkarti hai. Toh ee bataaiye ke aapka Rs 2,70,000 crore ka packagewa kaa hai?

Kumpetisun kariyega toh sach kawhne ka saahas rakkhiye

2. Tanik ee bataiye ke ee doh lakh sattar hajaar karor rupiya laiyega kahaan se? Jaun dilli sarkaar ko kos rahe hain unhi se naa? Ya aapka bhujang ji phree phund khol diye hain Bihaar kaa khaatir?

Ab jab bhikh hee maangna hai toh swabhimaan kaahe kaa?

3. Agar ee doh laakh sattar hajaar karor kendriya sarkaar se nahi lijiyega bhikh mey, toh kya udhaari lijiyega? Aapke bhujang toh nahi par Kejaria toh honest hain. Woh nahi de payenge.

Ee udhaar chukayiega kaise? Ab andolan se khush hokar kendr apnaa bhandaar toh nahi na kholegi!

Kaa baat kar rahe hain aap!!! Dhutt!!

Jai Bihar! ]

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और इस सन्दर्भ में मेरी प्रतिक्रिया....

मान्यवर....आपका पोस्ट पढ़के खूब अच्छा लगा और अईसा लगा की रैली सच्चे में लोग के दिमाग पर अच्छा खासा असर डालता है.आज़ादी के बाद जब वोट का राजनीती शुरू हुआ तब मुद्दा जमीं जायदाद समेटने,पडोसी देश से मथ फ़ोड़ौअल,मंदिर,कमंडल और मंडल होता था और ई सिलसिला बहुते साल चला.६७-६८ साल के  आज़ादी में आधा टाइम एही में लोग ओझरायल रहा.ज़ब कुछ समझदार लोग देश संभाला और टेक्नोलॉजी और उदारीकरण का बात किया तब जाके लोग को लगा की वोट के बदले में जो समान उ खरीदेंगे तो ओकरा में न्यूट्रीशनल वैल्यू भी देखना होगा। टाइम बदला और लोग का इ सोच विकास वाला मुद्दा से टकराया और फिर लोग अपना राज्य/शहर का औकात तौलना शुरू किया। इसको तौलने खातिर कोई देश के राजधानी(दिल्ली) को बटखारा बनाया तो कोई भेष का राजधानी(बम्बई) को बटखारा बनाया तो कोई अवशेष का राजधानी(कलकत्ता) को बटखारा बनाया तब जाके ई नेता लोगन के लगा की माल बेचे खातिर डिब्बा के साथ साथ ओकरा प्रिंटिंग पर भी माथा लगाना होगा। देखिये अब विकास का डिब्बा में न्यूट्रीशनल वैल्यू केतना डिटेल में रहता है...:) बिहार का मोदीफाइड चुनावी पैकेज और बिहार का लोकल चुनावी पैकेज दोनों इ कम्पटीसन का हिस्सा है... इ न कोई भीख दे रहा है और न इ कोई भीख मांग रहा है...लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई दाता दानी नहीं है और इसमें भीख का कोइओ जगह नहीं है. सत्ता में लोग होते है तो उ भीख देने लगते है और अगर उनको सत्ता बापस पाने की नौबत आती है तो यह उनका प्रक्रिया प्रदत अधिकार हो जाता है...इ पैकेज के कबड्डी कबड्डी में कोई पार्टी नया कस्टमर बनाने का प्रयास में लगा है तो उधर पदधारी आफ्टर सेल्स सर्विस और सेल्स सैटिस्फैक्शन पर भविष्य दिखा रहे है......वैसे हम ई कन्फूजिंग मुद्दे पर बिहार को अच्छे दिन का ढोकला या लाल्टेनजी की लिट्टी के नजरिये से नहीं देख रहे है,हम तो बस बिहार को बिहार के चश्मे से देखकर आपके पास्ट पर अपनी राय झाड़ रहे है...:) एक बात तो सत्य है की बिहार में नीतीशजी के कार्यकाल में जो भी काम पिछले दस साल में हुआ है वो अद्भुत है....मेरे इस विचार का समर्थन या विरोध बिहार के विकास की संवेदनशीलता पर नीतीशजी से पहले २१ मुख्यमंत्रियों और १३ प्रधानमंत्रियों का कार्यकाल का विश्लेषण करने के बाद ही कीजियेगा...सादर...