Negative Attitude

Negative Attitude
Negative Attitude

Thursday, May 16, 2013

IPL मैच फिक्सिंग स्पेशल......{इशारों इशारों में मैच फिक्स करने वाले}

इशारों इशारों में मैच फिक्स करने वाले
बता ये हुनर तुने सिखा कहा से
निगाहों निगाहों में पैसे कमाना 

मेरी जान सिखा हैं तुम ने जहा से
फ़िक्सर को तुम भा गए,क्या थी BCCI की इस में खता
क्रिकेट को तुमने जिस तरह डुबो दिया,
क्या यही है वो जालिम अदा
ये तौलिया दिखाना,खुजली का बहाना
जिंदगी ही हो गयी
है अब तुम से खफा
क्रिकेट से मोहब्बत जो करते हैं वो,क्रिकेट को डुबाते नहीं
अपनी इज्जत कभी, इस तरह लुटाते नहीं 
मजा क्या रहा जब खिलाडी ही कर रहे हो खेल को बदनाम
IPL का ही कर दिया बीच बाजार में नीलाम
माना के जाना-ए-जहा लाखों में तुम ही तीन हो
दिल्ली पुलिस की निगाहों की भी कुछ तो मगर दाद दो
क्रिकेट को नाज जिस फूल पर था
वही फूल ने क्रिकेट का कर दिया क़त्ल-ए-आम...

Tuesday, May 14, 2013

सुमधुरभाषिणीम्

मैं ये लेख लिखना नहीं चाहता था पर अपने आप को रोक नहीं पाया। भारत में आम आदमी के अभिव्यक्ति की आजादी कितनी सुरक्षित है इसका एक उदाहरण (मुंबई की फेसबुक वाली घटना) हम सब भूले तो नहीं ही होंगे.दिवंगत श्री बाला साहब ठाकरे के निधन पर एक फेसबुक यूजर ने फेसबुक स्टेटस लिखा और उसकी दोस्त ने उसे शेयर कर दिया और एक राजनितिक पार्टी के कार्यकर्ताओं की शिकायत पर दो युवतियों को अपनी निर्दोष भावना व्यक्त करने पर पुलिस ने अतिशय तेजी दिखाते हुए रात मे ही गिरफ्तार कर लिया था।

हाल ही में बसपा के सांसद शफीकर्रहमान बर्क ने देश की संसद में....जी हाँ संसद में..इन्टरनेट पर नहीं...वन्देमातरम का बहिष्कार करके साबित किया है कि ये लोग वोट बैंक के लालच में तुष्टिकरण के लिये किसी भी हद तक जा सकते है। वन्देमातरम जो माँ की आराधना का गान है आजादी की लड़ाई का मूल मंत्र रहा है उसका खुला विरोध करके क्या सांसद महोदय ने लोकतंत्र का अपमान नही किया है?

राजनेताओं के ऊपर की गई आम आदमी(जो मतदाता भी है) की टिप्पणी पर तो पुलिस बहुत तेजी से गिरफ्तारी की कार्यवाही करती है लेकिन जब कोई नेता या रसूखदार व्यक्ति सरेआम अभद्रता करते हैं तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नही होती। संसद जो लोकतंत्र की मंदिर मानी जाती है,में एक सांसद द्वारा ही समस्त सांसदों की उपस्थिति में देश की भावनाओं का बलात्कार किया जाता है और इस बलात्कार पर कोई भी राजनितिक पार्टी गंभीर नहीं दिखाई देती... बसपा सुप्रीमो मायावती ने तो इस मामले पर मौनव्रत ही धारण कर लिया है। देश की मीडिया ने भी इस विषय पर कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया। कुछ बहस हुई और बात ख़त्म...अब इस इंधन,इस उर्जा की क्या आवश्यकता? आजादी मिलने तक ही इसकी उपयोगिता थी।
क्या ये यह संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का सरेआम उल्लंघन नहीं है? यह सही है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की भी अपनी सीमायें और मर्यादा है। लेकिन इसकी कर्त्तव्यपरायणता में तो कोई आरक्षण नहीं होनी चाहिये... कोई धर्मभेद नहीं होनी चाहिए...क्या वन्देमातरम के बहिष्कार से देश की भावनाओं को क्षति नहीं पहुंचा है? क्या IT ACT और इस कानून के तर्क इन सांसदों पे लागु नहीं होता है?

 

{...वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्, [यानि साफ स्वव्छ जल ,अच्छे मीठे फल और शीतल हवाएं देने देने वाली ]
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् .. [ चारो ओर हरियाली है]
शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्,[ जिसकी चांदनी धवल फैली / में रात मतवाली है ]
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,[जहाँ डाल डाल फूल खिले / कमलों की लाली है ]
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,[जिसका हृदय है हास्य पूर्ण / मीठी जिसकी बोली है]
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ...


इन पंक्तियों में है देश की खुशहाली
कई होली और है कई दिवाली
है ईद की खुशियाँ और शब्-ए-बरात की कव्वाली
धर्मो का भण्डार है ये और है राष्ट्रधर्म की बोली
इन पंक्तियों में देश है बसता
शहीदों की है ये रंगोली
कहाँ करती अट्हास है किसको 
और किसको करती है ये ठिठोली
इन पंक्तियों में है देश की खुशहाली
कई होली और है कई दिवाली...} 


 

भारतीय लोकतंत्र की एक बदकिस्मती है की लोकतंत्र का चोला पहन इसके ही नुमाइन्दे वोट बैंक की खातिर इसकी अस्मत लुटने को आतुर है। भ्रस्टाचार,चीन या पकिस्तान के मुद्दे पे बोलने की बात आती है तो ये पूरी इमानदारी से प्रतिक्रिया देने में जुट जाते है लेकिन अफ़सोस इस मुद्दे पे देश के दीवानों की आकाल पड़ी है???

आश्चर्य है… भारत में आम आदमी के अभिव्यक्ति की आजादी कानून के दायरे में होनी चाहिए और राजनेताओं की अभिव्यक्ति की आजादी पर कानून लागु ही नहीं होता
है???

Saturday, May 11, 2013

संसद- Sine Die

भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जिसके खिलाफ प्रतिक्रिया तो सभी देना चाहते है लेकिन मौका मिले तो इसका सम्पूर्ण आनंद उठाने में लोगो को तानिक भी देर नहीं लगती। ये एक ऐसी सच्चाई है जिसका हर व्यक्ति अनुसरण करना चाहता है,विरोध तो सिर्फ आगे बढ़ने के लिए एफ्रोडीजिआक के तौर पर किया जाता है.इसका उपयोग राजनीती के पॉवर प्ले का पूरा पूरा लाभ उठाने के मकसद हेतु होता है। संसद बिना कोई ठोश काम काज के भ्रष्टाचार के मार से एक बार फिर अनिश्चितकालिन (SINE DIE) पस्त हो गया.विपक्षी पार्टिया अब ये पीठ थपथपा रही है की उनकी इस्तीफे की मांग जायज़ थी,अगर सरकार उनकी मांग मान लेती तो संसद का कार्य नहीं रुकता। बात भ्रष्टाचार या मंत्रियों की इस्तीफे की नहीं है बात तो ये है की इस धमा चौकड़ी का असली मकसद तो यही था की संसद चलने न पाए ताकि सत्ताधारी दल अपनी उपलब्धियों की सूचि में कुछ और पंक्तियाँ जोड़ने में असफल हो। खाद्य सुरक्षा बिल ,भूमि अधिग्रहण बिल जैसे कई अति महत्वपूर्ण बिल पर कोई कार्य नहीं हो सका और आश्चर्य इस बात की है की इसका मलाल लगभग पूरी राजनितिक जमात को नहीं है। ये एक गैर जिम्मेदार लोकतंत्र के संकेत है जहाँ जनता को लेकर पूरा लोकतंत्र ,पूरी राजनितिक जमात इस तरह निश्चिंत है मानो आम जनता के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी बनती ही नहीं है।

अगर आप संसदीय ढांचे और उसके कार्य करने के तरीके को देखे की तो आपको हमारा संसद लगभग 802 (250 राज्य सभा + 552 लोक सभा) सदस्यों वाली एक पार्टनरशिप वाली कंपनी की तरह कार्य करती मालूम पड़ेगी जिसमे कंपनी की शटर की चाभी कुछ गिने चुने व्यक्तियों के पास ही है जो अपने दलगत नफ़ा नुकसान के हिसाब से जब चाहे शटर डाउन कर सकते है। अगर निर्णय इन्ही गिने चुने व्यक्तियों को लेना देना है फिर सांसदों के इतने भारी भरकम हुजूम किस काम का?


विश्व के एक-तिहाई गरीब भारत में हैं, जो रोजाना 1.25 डालर (करीब 65 रुपये) से कम में जीवन-यापन करते हैं। ये क्या इस बात के साक्ष्य नहीं है की हमारी विशालकाय संसदीय लोकतंत्र आम जनता के प्रति कितनी बेफिक्र है की खाद्य सुरक्षा बिल जैसे अति गंभीर मुद्दे पे बिना कोई चर्चा के संसद का शटर डाउन कर दिया गया। आज अगर शोर है तो सिर्फ और सिर्फ दो मंत्रियों की इस्तीफे की,कब तक विपक्ष+मीडिया के चक्रव्यूह में आम लोगो की समस्याए जमींदोज होती रहेंगी। विपक्ष के लिए तो बस सत्ता के खक्खन के आगे समस्यों को हल करने की गति धीमी रहनी चाहिए ताकि आम जनता के अन्य समस्याओं के लिए राजनीतिज्ञों को ज्यादा जिम्मेदार न माना जा सके और उनके लिए मुद्दे रेडीमेड रूप में दोषारोपण के लिए सदैब उपलब्ध रह सके। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। वजह सिर्फ एक ही था आपसी फुट,आपसी कलह। आज भी हम इसी राह पर चल रहे है पहले आपसी लड़ाइ में किताब का कोई सहारा न था और आज जब इसका सहारा मिला है तो हम इसका उपयोग मात्र सत्ता के लिए कर रहे है पहले इस लड़ाई का उपयोग परदेशी उठाते है और आज घर के ही लोग उठा रहे है, इस अफरा-तफरी,इस बेचैनी,इस उहा पोह से गैर जिम्मेदार वातावरण का निर्माण हो रहा है जो व्यवस्था के हर हिस्से को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है चाहे वो मीडिया हो,व्यापारी वर्ग हो या प्रशासन...सब बीमार हो रहे है!!!


भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वोच्‍च प्रतिनिधि संस्‍था है। इसी माध्‍यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्‍यक्‍ति मिलती है। ‘संसदीय’ शब्‍द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्‍मक राजनीतिक व्‍यवस्‍था है जहां सर्वोच्‍च शक्‍ति लोगों के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे ‘संसद’ कहते हैं। यह वह धुरी है,जो देश के शासन की नींव है। जनता की सर्वोच्‍च प्रतिनिधि संस्‍था होने के नाते इसकी कार्य प्रणाली जिम्मेदार होनी चाहिए जिससे देशहित और आम जनता के उत्थान के लिए कार्य हो सके, ऐसा बिलकुल न हो की दलगत राजनीती और सत्ता प्रेम के लिए जब चाहे संसद का शटर डाउन कर दे। संसद को पार्टनरशिप कंपनी न बनने दे...वन्दे मातरम...

Friday, May 10, 2013

मामा भांजा स्पेशल...

पुराणों के अनुसार द्वापर युग के बारे में कहा गया है की इस युग में पृथ्वी पर पाप कर्म बढ़ गए थे और भगवान श्री कृष्ण का अवतार एवं महाभारत का युद्ध भी इसी युग में हुआ था। हमारे आर्यावर्त के इतिहास में मामा भांजा के रिश्ते हमेशा से ही लोभ,लालच और पारिवारिक भ्रष्टाचार की प्रतिक मानी जाती रही है। महाभारत में शकुनि मामा का जलवा किसको ज्ञात नहीं है जिन्होंने धर्म और अधर्म के चौसर में भ्रष्टाचार को इतना भावुक रूप दिया की करुक्षेत्र की मिटटी आज तक लहू लुहान है। पुराण के द्वापर युग और आज के वन्दे मातरम युग में अंतर मात्र इतना है की आज धर्म की सम्पूर्णता का आंकलन करने वाला कोई नहीं है सब करुक्षेत्र की मिटटी बन चुके है तो अधर्म के दुष्परिणाम की प्रत्याशा कौन करेगा। भ्रष्टाचार तो बस अधर्म का एहसान और रवायत का बड़ी शिद्दत से निर्वाह कर रहा है,नारायणी सेना भी साथ है।

रेल घुंस काण्ड भी इसी इसी परंपरा की झलक है जो दर्शाती है की भ्रस्टाचार का जन्म घर में होता है और राजनीती में आकर जवां होती है। जैसे शीला की जवानी के मजे सपरिवार उठाते है वैसे ही इसकी जवानी के भी लुत्फ़ उठाये,हर्ज़ क्या है ? बुद्धिजीवियों के खेल शतरंज में प्यादा की स्थिति यथावत ही है सिर्फ बुद्धिजीवियों की पीढियाँ बदली है...चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शारीर, पर लोभ से लक्ष्मी बढे, कहाँ गए अब दास कबीर..:-)

Friday, May 3, 2013

क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो मिटटी बनकर

क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो मिटटी बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो आंशु  बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो सिर्फ सुपुर्द ए खाक होने 
क्या अब हममे इतनी ही शक्ति बची है की अपनों के अर्थियों का सहारा बन सके
क्या चुक हुई जो राजनीती हत्यारा बन गया
क्या चुक हुई जो इंसानियत दर्द का पिटारा बन गया
सरहदों को क्या मालूम रक्त का व्यवसाय होता है वहां
सरहदों को क्या मालूम जिंदगी असहाय होता है वहां
सरहदों को क्या मालूम छल की रवायत है वहां
सरहदों को क्या मालूम जिंदगी के आगे जिंदगी दम तोडती है वहां
क्या चुक हुई जो जय हिन्द की उर्जा काम न आई
क्या चुक हुई जो वन्दे मातरम बेसहारा बन गया
२५ साल कितनी मंडली आई कितनी मंडली गयी
अगर यह निर्दोष था क्यों इसे बचाया न गया
राजकीय शोक से फिर छुपाया जा रहा है राजनीती के इस अपराध को
क्या चुक हुई जो राजनीती से मौत के खेल को हटाया न गया
अगर मलिन हो चुकी है राजनीती तो ख़त्म करो इस रिश्ते को
अगर दीन हो चुकी है कूटनीति तो दफ़्न करो दिखावे के इस गुलदस्ते को
मौत पे रोने की परंपरा है पर आँखों को क्या पता इस अनर्थ का 
आंशुओं को क्या पता की किस बूंद में गम की पीड़ा है और किस बूंद में दिखावा
जुटेंगे लोग मिटटी को मिटटी में मिलाने को
एक और अपराध,एक और कत्ल दफनाने को
बोलियाँ फिर लगेंगी कल से सत्ता के सुनहरे बाजार में इंसानों की
बंदरबांट में जुटे यहाँ किसको चिंता है भारत/भारती के संतानों की
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो मिटटी बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो आंशु  बनकर
क्या चुक हुई जो वतन का लाल घर लौटा तो सिर्फ सुपुर्द ए खाक होने...

Thursday, May 2, 2013

परिवर्तन है चीत्कार कर रहा

बार बार कोंख क्यों है शर्मशार हो रहा
अजन्मी बेटियों पे वार बारम्बार हो रहा
ममता की अस्मत तार तार हो रहा
क्या हो गया है इस संसार को
इंसानियत क्यों है बीमार हो रहा
बार बार कोंख क्यों है शर्मशार हो रहा
अजन्मी बेटियों पे वार बारम्बार हो रहा
क्यों देखती है आँखें इनको अलग थलग
जन्म देने वाला ही मौत का क्यों पैकार बन रहा
और जो बेटियाँ है इस जहां में
क्यों इनपे इतना है अत्याचार हो रहा
रिश्तो की डोर से बंधे इस समाज को
रिश्तो से ही क्यों अब सरोकार न रहा
क्या हो गया है इस समाज को
इंसानियत है क्यों नीलाम हो रहा
वक़्त है एक सच्ची आवाज़ की
स्वस्थ रिश्तों की आगाज़ की
बेटियों के तख्तोताज की
एक जिम्मेदार समाज की
परिवर्तन है चीत्कार कर रहा
परिवर्तन है चीत्कार कर रहा...