Negative Attitude

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Friday, January 25, 2013

जन गण मन अधिनायक जय हे...

भारतीय गणतंत्र की 64व़ी वर्षगांठ। पक्का पक्की एक और छुट्टी का दिन! हम मैक्सिमम सिटी वाले मेजोरिटी से माइनॉरिटी बनने के लिए हर दिन भारतीय रेल से ही यात्रा किया करते है। यहाँ की ट्रेन में यात्री-गण का अपना छोटा छोटा समूह होता है जो अपने समूह के लोगो के लिए सीट(Seat) रखने में अपना सर्वस्प लगा देते है। इसी समूह में मैं भी अल्पसंख्यक की तरह सीट के मध्य जो जगह होती है में सबसे पीछे मौजूद रहता हूँ। ट्रेन अपने नियत समय पर रवाना हुई और साथ साथ गपाश्टक चालीसा भी शुरू हो गया। एक यात्री ने अपने मित्र से कहा क्यों भाई कल तो छुट्टी है..क्या प्रोग्राम है? मित्र - कुछ नहीं भाई कल ड्राई डे (Dry day) है...खंभा आज ही लेना पड़ेगा ? सुनकर ऐसा प्रतीत हुआ मानो अभी भी आम आदमी अपने आप को गुलाम महसूस कर रहा हो। आम आदमी की दयनीय होती परिस्थिति से देशभक्ति की भावना भी अब कितना बोझिल हो चुकी है की भारत के गण के लिए गणतंत्र दिवस के मुकाबले ड्राई डे (Dry day) की महत्ता का ज्यादा ख्याल है? वैसे गणतंत्र दिवस और गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ तो हम सबको पता ही है.बस नहीं पता है की इस राष्ट्र गान जन-गण-मन का अधिनायक कौन है? किसकी स्तुति गाते है हम? और क्यों?  एक बार फिर मंथन!

गणतंत्र दिवस:- जैसा की हम सभी जानते है की 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था,तभी से देश गणतंत्र हुआ और उसी उपलक्ष मे 26 जनवरी को हर वर्ष गणतंत्र दिवस मनाया जाता है। गणतंत्र या गणराज्य का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। सैंकड़ो वर्षों की गुलामी और आजादी के नाम मिले विभाजन, रक्तपात और शरारती पड़ोसी के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत पुनः गणतंत्र बना।हमने इन 64 वर्षों में अनेक आंधी-तूफानों का सफलतापूर्वक सामना किया है लेकिन दुर्भाग्यवश आज़ाद भारत आज तक गण और तंत्र के बीच समन्वय नहीं बिठा सका है और जब तक गण और तंत्र के बीच समन्वय नहीं होगा तब तक गण के लिए इस राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस का महत्व भी समझ से परे होगा।

हाल ही में सीमा पर शहीद हुए देश के दो बहादुर लाल(लांस नाइक वीर हेमराज एवं सुधाकर सिंह) इस गणतंत्र में गण की शक्ति,प्रतिभा और समर्पण की मिसाल है जिनका क़र्ज़ हम तमाम भारतवासी कभी भी पूरा नहीं कर पायेंगे। नमन करते हैं तुझको एवं उन तमाम धरती पुत्रों की जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई है। गणतंत्र की महत्ता समझनी है है इनके निस्वार्थ वलिदान को महसूस करे अर्थ स्वतः ही आपका आलिंगन करेंगे।जय जवान,जय किसान से जय विज्ञान तक इस देश के तंत्र की नहीं बल्कि ‘गण’ की महिमा है,जो आज संपूर्ण विश्व के लिए प्रेरणा का श्रोत है। अस्त्र शस्त्र का भारी भरकम बेडा और सूचना प्रौद्योगिकी में प्रगति इत्यादि इसके साक्ष्य है।संविधान,कानून, नियम,उप नियम और संविधान में संशोधनों का कारण एक ही है। तंत्र चाहता है कि गण हर हाल में व्यवस्था को सुचारू बनाए। अगर हम तंत्र की इस धारणा को समझते हुए आत्मसात करें तो कानून के साथ उप कानून और नियम के साथ उप नियम की जरूरत नहीं होगी। जरूरत सिर्फ इतनी है कि हम अपने कर्तव्यों की पालना शुरू कर दें। पर प्रश्न यह है की इस कर्त्तव्य रुपी झंडे को कौन फहराएगा? कौन इस परेड की सलामी लेगा? और कौन इस समारोह में मुख्य अतिथि होगा? - गणतंत्र के तमाम गण या सिर्फ राजनीतिज्ञ?

आदर्श रूप में गणतंत्र में गण और तंत्र के बीच समन्वय बिठाने की जिम्मेदारी राजनीतिज्ञों की होती है लेकिन हमारे देश की राजनीती अभी भी राजतंत्र वाली होती है प्रजातंत्र वाली नहीं। ये हमारी राजनीतिज्ञों द्वारा की जा रही ता ता थैया से समझी जा सकती है। हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ तल्ख टिप्पणी की और यहाँ तक कह दिया की अब मैं क्या करूं? क्या मैं पीएम को मारूं? राज्य में कम वजन और कुपोषण के कारण नवजात शिशुओं की मौत के बढ़ते आंकड़े का जिक्र करते हुए उन्होंने एक और विवादास्पद व्यान दिया की पड़ोसी राज्य बिहार से ज्यादा संख्या में मरीजों का आना एक समस्या बन गई है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा, 'आप जानते हैं हमारी समस्या क्या है? बिहार से कई लोग इलाज के लिए अपने बच्चों को लेकर पश्चिम बंगाल के जिलों मालदा और मुर्शिदाबाद के अस्पतालों में आते हैं।' हाल की एक और घटना है जिसमे महाराष्ट्र के जाने माने राजनीतिज्ञ राज ठाकरे ने कहा की बिहारी बलात्कारी होते है। गणतंत्र में केंद्र अगर घर है तो राज्य इसके कमरे और केंद्र की जिम्मेदारी समूचे घर की देखभाल करने की है एवं राज्य की जिम्मेदारी कमरे और इसमें  रहने वाले गण की देखभाल की है। लेकिन आज तक हम राजतन्त्र या गुलामी के फोर्मुले को भूल नहीं पाए है। वही फुट डालो राज करो नीति को अपनाकर गौरवान्वित हो रहे है। राज्यों को देश का हिस्सा नहीं वल्कि एक अलग मुल्क की तरह देखा जा रहा है। फुट डालो राज करो की नीति असुरक्षित वातावरण का संकेत होता है जहाँ पॉवर स्ट्रगल में गण से लेकर तंत्र तक असुरक्षित होता है और सब एक दुसरे के दुश्मन प्रतीत होते है। ऐसी राजनीती में हम एक समृद्ध गणराज्य की कैसे कल्पना कर सकते है? किसी भी देश के विकास में तंत्र के साथ साथ गण का एकजुट होना भी आवश्यक है। लेकिन प्रजातंत्र को राजतन्त्र के चश्मे से देखकर परिचालन करना न राजनीती के लिए स्वास्थ्यवर्धक है और न ही राजनीतिज्ञ के लिए। जनता ‘मालिक’ नहीं, ‘नौकर’ बनी दिन-काट रही है क्योंकि उसके लिए बने अस्पतालों में इलाज के नाम पर लम्बी लाइनें तो हैं लेकिन रोगी के लिए बिस्तर, बैड भी नहीं है। रेल के डिब्बे में पैर रखने की जगह नहीं एवं बसों में भी बेबसी का आलम है और उस पर BUY 1 GET 1 OFFER के तहत देश के भीतर ही अप्रवासी होने का लांक्षण भी।संबिधान को लागु हुए 64 वर्ष हो चुके है लेकिन आज भी औसतन 50-60% लोग ही वोट देते है। विश्व के सातवें सबसे बड़े लोकतंत्र में आधी आबादी के मत के वगैर लोकतंत्र का परिचालन एक दक्ष गणतंत्र की परिभाषा वयां करने में सक्षम है। भ्रष्टाचार,महिला के सुरक्षा सम्बन्धी कानून के मुद्दे इत्यादि आज के स्वतंत्र मीडिया वाले युग में मनोरंजन मात्र है। भ्रष्टाचार और कालेधन पर खूब बढ़-चढ़कर बातें करते करने वाले क्या इतना भी नहीं जानते कि यह ‘तंत्र’ की निष्क्रियता अथवा मिली भगत के बिना संभव नहीं है। यह तंत्र और नियमों की असफलता नहीं तो और क्या है?

अगर परिवर्तन ही इसका हल है तो वो परिवर्तन भारतीय राजनीती में होनी चाहिए। राजनीती का स्वरुप ऐसा हो,राजनीती की नियत ऐसी हो जिसका उद्देश्य मात्र सत्ता हासिल करना न हो वल्कि इसके साथ साथ प्रजा के लिए सामाजिक,आर्थिक,बौद्धिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास का भी संकल्प हो और असफल होने पर सत्ताधारी राजनितिक पार्टी या उनके समूह की उत्तरदायित्व भी तय की जाये। फिर देखिये गण और तंत्र के बीच संघर्षविराम कैसे होता है..

आप सभी को गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर अनंत शुभकामनाये…HAPPY REPUBLIC DAY….जय हिन्द..:-)

Wednesday, January 23, 2013

मिनिमम इन मैक्सिमम सिटी

पिछले कुछ दिनों से रात में मैक्सिमम सिटी का पारा गिरकर 13-16 के इर्द गिर्द घूम रहा है और सर्द हवाएं लोगो को गर्मी में भी सर्दी के एहसास करा रही है। मैं भी इन सर्द हवाओं के चपेट में ताप को झेल रहा हूँ पर गिरते नही चढ़ते ताप का!! यहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सूर्य की किरणे सर्द हवाओं का बहिष्कार कर रही है और रात की मध्यम सर्द हवाए सूर्य की गर्मी का खूब मजाक उडा रही हो। पौष आने वाला माघ से नजरे चार कर रहा है और वसंत इनकी आशिक़ी देख इर्ष्या की अग्नि में जल रही है। ऋतुए जब बदल रही होती है तब ऐसी अस्थिरता आम बात है वैसे ऋतुराज वसंत का माघ महीने की शुक्ल पंचमी(बस अगले कुछ ही हफ्तों में) से आरंभ होता है। इस ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है। मौसम सुहावना हो जाता है। पेड़ों में नए पत्ते आने लगते हैं। आम बौरों से लद जाते हैं और खेत सरसों के फूलों से भरे पीले दिखाई देते हैं अतः राग रंग और उत्सव मनाने के लिए यह ऋतु सर्वश्रेष्ठ मानी गई है.

वैसे तो इस मैक्सिमम सिटी में ज्यादातर परिस्थितियाँ मैक्सिमम ही है लेकिन जो सबसे मिनिमम है वो है सर्दी और मैं तपते शरीर से इन्ही सर्द हवाओं को महसूस करने मैक्सिमम सिटी की उस सड़क पे निकला जहाँ से गर्व,घमंड,चंचलता,ख्वाब,संयम,सुन्दरता,कामुकता,तीब्रता,व्याकुलता एवं अनंत बहुत साफ़ साफ़ दिखाई देती है। सर्द हवाओं के साथ धीरे धीरे स्याह होता नीला गगन और उस पर एशिया की सबसे अमीर मानी जाने वाली नगरपालिका की प्रकाश-पुंज द्वारा अंधियारे और उजाले की बीच की ये प्रतियोगिता जिसकी हार और जीत का अंजाम सिर्फ इन्हें ही मालूम है देखते नहीं बन रही थी। यह वही प्रकाश पुंज है,यह वही ख्वाब है,यह वही तीब्रता,यह वही व्याकुलता है और यह वही अनंत है जहाँ लोग जीने की तमन्ना भी रखते है और मरने का इरादा भी। इस मैक्सिमम सिटी का यही वो सूक्ष्म रास्ता है जहाँ भारत की गरीबी बहुत धुंधली और इंडिया की विलासिता बिलकुल स्पष्ट दिखाई देती है। वैसे तो लोग तपती शरीर में सर्द हवाओं से परहेज किया करते है लेकिन कल मेरी इस तपती शरीर को इन सर्द हवाओं से जो शुकून मिला वो शायद पिछले 2-3 दिनों में औषधियों से भी नहीं मिली थी।चकाचौंध रौशनी में तेज रफ़्तार से दौड़ती रंग बिरंगी गाड़ियों के शोर में भी शुकून और संयम महसूस हो रहा था। शरीर में सांस ही क्रियाशील जिंदगी की सूचक होती है और कल की ये सर्द हवाएं तपती शरीर में ऑक्सीजन का प्रवाह कर रही थी। अरब सागर की ओर निहारती इस सुक्ष्म रास्ते की ऊँची ऊँची बहुमंजिली इमारत इमारत नहीं वल्कि इस मैक्सिमम सिटी का गर्व है,घमंड है और ऊँचा होने की विरासत भी। शायद इसी लिए यहाँ से गुजरती सर्द हवाएं भी मेरी तपती शरीर को अपनी हैसियत के बलबूते आराम पंहुचा रही थी। सार्वलौकिक सोच में मदमस्त यहाँ के सैलानी,मोहब्बत के अनुयायी युवक दल और नीरस बुढापे में जिंदगी की रस बरक़रार रखने को प्रयत्नशील बुजुर्ग जोड़े जिंदगी जी लेने की अजब लेकिन गजब प्रेरणा देती है। लगभग डेढ़ घंटे की चहलकदमी से उर्जावान होकर अब मेरा तपता शरीर पूरी तरह से थक चूका था और फिर क्या बस निकल पड़ा अपने आशियाने की तरफ रात्रि विश्राम के लिए। अब ट्रेन की तेज रफ़्तार के आगे ऊँची ऊँची इमारते आँखों से ओझल होती जा रही थी और इसी मध्य अनायास एक FM रेडियो चैनल द्वारा प्रस्तुत ये गीत.....It made my day......समय के किसी पड़ाव पर अगर ख्वाब और हकीक़त दो अलग अलग रास्ते चल रहे हो तो ऊँची और भडकदार इमारतों की उदासी और खामोश सागर की शक्लो सूरत देख इस सोंच को बहुत उर्जा मिलती है शायद ऊँचा बनना और ऊँचा दीदार करना दोनों ही जरूरी है इस जिंदगी में,आखर दोनों एक दुसरे को प्रेरित करने में संपूरक जो है...

ओ रे मनवा तू तो बावरा है
तू ही जाने तू क्या सोचता है बावरे
क्यूँ दिखाए सपने तू सोते जागते
जो बरसें सपने बूँद बूँद
नैनों को मूँद मूँद
कैसे मैं चलूँ ,देख न सकूँ
अनजाने रास्ते
गूँजा-सा है कोई इकतारा..:-)

Sunday, January 20, 2013

Its RE-SEARCH(रि-सर्च)-लेडीज एंड जेंटलमेन

एक प्रसिद्ध,पवित्र एवं पूज्यनीय धर्मग्रन्थ बाइबल के अनुसार परमेश्वर ने पुरे ब्रह्माण्ड को सात दिनों में बनाया था और आज मैं इस आलेख का प्रारंभ इसी में वर्णित कुछ अंशों के साथ कर रहा हूँ।
सर्वप्रथम परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी को बनाया। पृथ्वी बेडौल और सुनसान थी। धरती पर कुछ भी नहीं था। तब परमेश्वर ने कहा उजियाला हो और उजियाला हो गया। फिर परमेश्वर ने उजियाले को अन्धकार से अलग किया और उजियाले को दिन और अंधियारे का नाम रात रखा। शाम हुई और फिर सवेरा हुआ। यह पहला दिन था।
दुसरे दिन परमेश्वर वायुमंडल बनाया और जल को अलग किया,कुछ जल वायुमंडल के ऊपर था और कुछ जल वायुमंडल के निचे। परमेश्वर ने वायुमंडल को आकाश कहा!
तीसरे दिन परमेश्वर ने पृथ्वी के जल को एक जगह इकट्ठा किया जिससे सुखी भूमि दिखाई दे और सुखी भूमि का नाम पृथ्वी रखा और जो जल अलग किया था उसका नाम समुद्र रखा। फिर पृथ्वी घास,पौधे जो अन्न उत्पन्न करते है और फलो के पेड़ उगाये। फलो के पेड़ ऐसे जिनके अन्दर बीज हो और हर एक पौधा अपनी जाती का बीज बनाए।
चौथे दिन परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियाँ बनाई। परमेश्वर ने उनमे से बड़ी ज्योति को दिन पर राज्य करने के लिए बनाया और छोटी ज्योति को रात पर राज्य करने के लिए बनाया और इसके साथ साथ परमेश्वर ने तारे भी बनाए। पांचवे दिन जल के अनेक जलचरो और पक्षियों को उत्पन्न किया और इनको आशीष दिया की बहुत सारे बच्चे उत्पन्न करो।
छठे दिन परमेश्वर ने कहा पृथ्वी हरेक जाती के जीव-जंतु उत्पन्न करे। हर जाती के जानवर और छोटे रेंगने वाले जानवर हो और यह जानवर अपने जाति के अनुसार और जानवर बनाए। तब परमेश्वर ने कहा अब हम मनुष्य बनाएं। हम मनुष्य को अपने स्वरुप के जैसा बनायेंगे और यह हमारी तरह होगा। वह समुद्र की समस्त मछलियों,आकाश के पक्षियों और सभी जानवरों और रेंगने वाले जीवों पर राज करेगा। तब परमेश्वर ने पृथ्वी से धुल उठायी और मनुष्य को बनाया और फिर मनुष्य के नाक में जीवन की सांस फूँकी और इस तरह मनुष्य एक जीवित प्राणी बन गया। फिर परमेश्वर ने अदन नामक जगह में बाग़ बनाया और परमेश्वर ने अपने बनाए मनुष्य को इसी बाग़ में रखा। परमेश्वर ने प्रत्येक सुन्दर पेड़ और भोजन के लिए सभी अच्छे पेड़ों को इस बाग़ में उगाया। इसी बाग़ के मध्य में परमेश्वर ने जीवन के पेड़ को रखा और उस पेड़ को भी रखा जो अछे और बुरे की जानकारी देता है। मनुष्य का काम पेड़-पौधे लगाना और बाग़ की देखभाल करना था। परमेश्वर ने मनुष्य को यह आज्ञां दी की तुम इस बगीचे के सभी पेड़ के फल खा सकते हो लेकिन अछे और बुरे की जानकारी देने वाले पेड़ का फल नहीं खा सकते यदि तुमने इस पेड़ का फल खा लिया तो तुम मर जाओगे। तब परमेश्वर ने माना की मनुष्य का अकेला रहना ठीक नहीं है और कहा की इसके लिए उपयुक्त सहायक बनाऊंगा और फिर परमेश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो रहा था तो परमेश्वर ने मनुष्य के शारीर से एक पसली निकाल ली और फिर इस त्वचा को बंद कर दिया और जहाँ से उसने पसली निकाली थी। और इस तरह मनुष्य के पसली से स्त्री की रचना की और फिर परमेश्वर ने मनुष्य को स्त्री के पास लाया और मनुष्य ने कहा अंततः हमारे सामान एक व्यक्ति। इसकी हड्डियां मेरी हड्डियों से आई,इसका शारीर मेरे शारीर से आया और इसलिए मैं इसे स्त्री कहूँगा। यह छठवां दिन था।
अंततः सातवे दिन परमेश्वर ने अपने काम को पूरा कर विश्राम किया।
स्त्री की उत्पत्ति नहीं हुई वल्कि इसकी रचना की गयी है। इस परिकल्पना को हमारे समाज के अन्य प्रसिद्ध,पवित्र एवं पूज्यनीय धर्मग्रंथो एवं साहित्य ने कुछ ऐसे  ही मिलते जुलते रूप में वर्णन किया है ....
  • जाओ वैदेही तुम मुझ से मुक्त हो, जो करना है मैंने किया, मैंने रावण से युद्ध अपने राज्य और शासन से कलंक मिटाने के लिए किया। मुझे पतिरूप में पाकर तुम ज़राग्रस्त न हो इसीलिये मैंने रावण का वध किया, मेरे जैसा धर्म बुद्धि संपन्न व्यक्ति दूसरे के हाथ में आई स्त्री को एक क्षण के लिए भी कैसे ग्रहण कर पायेगा। तुम सच्चरित्र हो या दुश्चरित्र मैं तुम्हारा भोग नहीं कर सकता मैथिलि। { रामायण - राम सीता संवाद - ३/२७५/१०-१३}
मैथिली शरण गुप्त ने लिखा था कि:
  • अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आंचल में है दूध और आंखों में पानी।
पवित्र क़ुरान में लिखा है :-
  • मनुष्य को चाहत की चीज़ों से प्रेम शोभायमान प्रतीत होता है कि वे स्त्रियां, बेटे, सोने-चांदी के ढेर और निशान लगे हुए घोड़े हैं और चौपाए और खेती. यह सब सांसारिक जीवन की सामग्री है...[कुरआन 3:4]
" भोजन खाकर स्त्री को जूठा देना" { गृहसूत्र १/४/११} { यह प्रथा बंगाल में आज भी है }

मतलब बिलकुल स्पष्ट है इस ब्रह्माण्ड की रचना ही पितृसत्तात्मक समाज से हुई है जिसमे मानव समूदायों का नेतृत्व पुरुष करता है। सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। और शायद यही वो कारण जिसने स्त्रियों को समाज में ऐसे जगह पे रखा हुआ है। साहित्य को और खंगालने पर कुछ ऐसे ही और प्रमाण मिलते है जो पितृसत्तात्मक समाज की मनमानियां वयां करती है। कहते है शब्द ही ब्रह्म है और ये शब्द भी कम अपराधी नहीं है जिसने साहित्यकारों को स्त्रियों को एक पूर्ति साधन वाली वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने में बढ़ चढ़ कर मदद की। स्त्री को भिन्न भिन्न शब्दों से संबोधन एवं वर्गों में बांटा जाना उसके पतन और शोषण नहीं तो क्या है....
नारी - नारी शब्द नृ अथवा नर शब्द से बना है......
पुत्री- यह पुत्र शब्द का स्त्रीलिंग रूप है पुत्रका या पुत्रिका प्रयोग भी कही-कहीं मिलता है ।
सुता- पुत्री को सुता भी कहते है सु धातु से क्त प्रत्यय करने पर सुता रूप बनता है जिसका अर्थ है उत्पादित या पैदा किया गया
बाला - सोलह वर्ष से कम आयु की युवती को बाला कहते हैं यह शब्द भी कन्या का प्रर्याय है बाला का एक अर्थ अवयस्का या तरूणी भी होता है बाला को बालिका भी कहते हैं
युवती - वह स्त्री जिसे यौवन प्राप्त हो। तुलसी ने कहा है दीप सिखा सम जुवती तन......
तरुणी- जवान स्त्री को तरूणी कहते हैं,
मध्यमिका -विवाह योग्य वयस्क कन्या को मध्यमिका या मध्यमा कहते हैं
दुहिता - कन्या को दुहिता भी कहा जाता है एंगलो सेक्शन का दोहतार,अंग्रेजी का डाटर,जर्मन का तोखतर,ग्रीक का धुगदर ये सभी शब्द किसी न किसी रूप मे नाता रखते हैं।बेटी का नाता अंतरर्राष्ट्रीय है....माता की तरह ही...दुहिता वह भी है...जिसे दुतकारा जाए।
अबला- इस शब्द की रचना नारी के शारीरिक बल को ध्यान मे रख कर की गई है क्यो कि स्त्री मे पुरूष जैसा बल नहीं होता है।
मोहिनी - मन को हरने वाली स्त्री को मोहिनी कहते हैं...समुद्र मंथन में मिले अमृत के लिए जब युद्ध हुआ तो राक्षसों को ठगने के लिए विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण किया था।
पत्नी –पत्नी के लिए सहचरी, सखी ,सहचारिणी सहधर्मिणी शब्द का भी व्यवहार मिलता है। पत्नी सुख दुख की साथी होती है इसलिए सखी है जीवन के हर डगर पर
पुरूष के साथ चलने वाली है इसलिए सहचरी है पुरूष के धर्म कर्म मे साझेदार है इसलिए सहधर्मिणी है।
गृहणी - पत्नी घर के कार्यभार सभालती है इसलिए गृहणी है गृहणी यानी घरनी....किसी ने कहा है...बिन घरनी घर भूत का डेरा ।
प्रियतमा ,प्रेयसी - पत्नी पुरूष को प्रिय होती है इसलिए उसे प्रियतमा या प्रेयसी का सम्बोधन भी मिलता है।
वधु,वधूका,वधू ,वधूरी-स्त्री पिता के घर से मान सम्मान,धन सम्पति का पति गृह तक वहन करती है, इसलिए वघू कहलाती है । वघू शब्द पत्नी ,पुत्रवधू ,युवती इन सभी अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । वघूरी शब्द का प्रयोग तरूणी स्त्री के लिए होता है।
महिला- इस शब्द मह का अर्थ पूजा है..यह शब्द स्त्री की महिमा दर्शाता है। महानता, महान, महीयसी, महा, महत्तर जैसे तमाम प्रधानता स्थापित करनेवाले भावों के समेटे हुए शब्दों का जन्म भी उसी मह् से हुआ है जिससे महिला शब्द बना है। इसी शब्द में उस युग की छाया नजर आती है जब पृथ्वी पर मातृसत्तात्मक व्यवस्था भी  थी।
धर्मग्रन्थ,साहित्य से हटकर अब थोडा विज्ञान और मनोविज्ञान की नजर में पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री को देखने की कोशिश करते है। मनुष्य यौन क्रियाओं द्वारा खुद को पुनः उत्पन्न करता है। पर जब बात सेक्स मतभेद पर आती है तो महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं और पुरुषों प्रजनन में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं, और यह सिर्फ एक शारीरिक बात नहीं है.प्रजनन की सामाजिक लागत दोनों महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग अलग हैं, और मानव जाति के विकास के दौरान इन्ही कारको ने पुरुषों और महिलाओं में एक लाभ भरा सोच, बर्ताव और महसूस करने के विभिन्न तरीकों को विकसित किया।परिणामस्वरूप पुरुषो ने अपने जीन(Gene) को कायम रखने की प्रयास के कई पैमाने रखे जिनमे से शादी के लिए रंग रूप के साथ साथ अपने से कम उम्र की महिला प्रमुख है।यह कोई विशेष सामाजिक मज़बूरी या अनिवार्यता नहीं है बल्कि कम उम्र स्त्री के स्वस्थ प्रजनन क्षमता के आशुलिपि संकेतक है ताकि उनका आने वाला वारिस स्वस्थ हो। पुरुषो की तरह स्त्रियों ने भी अस्तित्व की सुरक्षा के ध्यान में रखते हुए अपने भावी पति के कुछ पैमाने रखे जिसमे रंग,रूप और शारीरिक पुष्टता से ज्यादा तबज्जो अर्थ-धन को दी गयी है।इस सोच के कई तर्क और कारण है और इन्ही में एक है संभावित जीवन साथी और उनके वंश के लिए प्रजनन में गर्भावस्था के नौ महीने में महिलाओं के उनके हिस्से के लिए समय और प्रयास के निवेश की अधिकता और यही वजह है महिलाएं खुद की तुलना में अमीर जीवन साथी पसंद करते हैं.
सामाजिक परिकल्पना वाले व्यवस्था में जीवन साथी शब्द और उसमे उत्पादन,लागत जैसे वाणिज्यिक गतिविधियों का समावेश ने स्वार्थी भाव जैसे एक गंभीर विकृति का जन्म दिया और यही सोच आज तक कायम है जो स्त्री पुरुष के मतभेद और मनभेद दोनों को संजो कर रखे हुए है। यही वो विकृति है जो पितृसत्तात्मक समाज को अपने वजूद की असुरक्षा का भय महिलाओं पर दबंगई दिखाने को मजबूर करता है। बायोलोजिकल व जनेन्द्रियों की भिन्नता तो सर्वविदित है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में इन भिन्नताओं की भुमिका नगण्य है। कुछ फर्क हार्मोन्स का भी रहता है लेकिन हर्मोन्स का अन्तर व्यक्तित्व के संवर्द्धन में नगण्य सा ही भूमिका अदा कर पाता है। महिलाओं को कोमलांगी कहा जाता रहा है। कोमलांगी शब्द पाषाण युग में सही था। क्योंकि उस योग में शारीरिक पुष्टता ही शक्ति का मापदण्ड होती थी। लेकिन आज के इस युग में शक्ति,विकाश,सफलता एवं खुशहाल जिंदगी के मंत्र अलग हो गए है और आज शारीरिक पुष्टता आरक्षण के श्रेणी में महादलित के जैसा है,आज शक्ति का घोतक है आपका ज्ञान,स्वस्थ विकासशील सोच। किसी गुरु की विशिष्टता अथवा किसी पारलौकिक देवी से किसी स्त्री का आवरण बना कर उसे पूज्य बनाना,स्त्री के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करना कि "वेश्या के घर की मिटटी मिलाकर दुर्गा की मूर्ति बनती है" पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री के प्रति दोमुही राजनीती एवं छलावा है जो पितृसत्तात्मक संस्कृति के स्त्री की बहुआयामी अस्तित्व और उपयोग का रिवाज प्रस्तुत करती है। आज हमारे समाज को जिस व्याधि से हर रोज शर्मशार होना पड़ रहा है उसको क़ानूनी लफ्जो में हमारे देश में रेप और अमेरिका में फोर्सिबल रेप कहा जाता है,ये दो नाम पितृसत्तात्मक संस्कृति-समाज का हिस्सा है जो इस समाज का तब तक असाध्य रोग बना रहेगा जब तक इसे सत्ता,अधिकार और मिलकियत से जोड़ा जाता रहेगा।
स्त्री शब्द के मूल में संस्कृत की स्त्यै धातु है। यह समूहवाची शब्द है जिसमें ढेर, संचय, घनीभूत, स्थूल आदि भाव शामिल हैं। इसके अलावा कोमल, मृदुल, स्निग्ध आदि भाव भी निहित हैं। गौर करें कि स्त्री ही है जो मानव जीवन को धारण करती है। सूक्ष्म अणुओं को अपनी कोख में धारण करती है। उनका संचय करती है। नर और नारी में केवल नारी के पास ही वह कोश रहता है जहां ईश्वरीय जीवन का सृजन होता है। उसे ही कोख कहते हैं और कोख में ही जीवन के कारक अणुओं का भंडार होता है। वहीं पर वे स्थूल रूप धारण करते हैं। गर्भ में सृष्टि-सृजन का स्निग्ध, मृदुल, कोमल स्पर्श उसे मातृत्व का सुख प्रदान करता है। गौर करें कि संस्कृत में किसी भी जीव के पूरक पात्र अर्थात मादा के लिए स्त्री शब्द है क्योंकि नए जीव की सृष्टि का अनोखा गुण उसी के पास है। इसीलिए वह मातृशक्ति है, इसीलिए वह स्त्री है न की कोई और वजह
कहानियाँ जो भी हो या मतलब जो भी निकाले परन्तु सत्य तो यही है की स्त्री और परुष दोनों ही परमेश्वर की उत्पत्ति है और यह अपने आप में एक दुसरे यानी - इंसानों के प्रति अच्छे रिश्ते के उद्देश्य के लिए हुई है। स्त्री और पुरुषो को एक दुसरे के विपरीत आकर्षण शारीरिक 'भिन्नता' है और 'प्रकृति' भी और यह सत्ता,अधिकार और मिलकियत की मोहताज नहीं है। गौर करे तो आज से एक पीढ़ी पहले तक औसत परिवार का अकार 3 या उससे अधिक हुआ करता था- कारण था सस्ती जीवन यापन और भयानक म्रत्यु दर लेकिन महंगाई में लगातार वृद्धि,कठिन होती जीवन यापन और म्रत्यु दर में सुधार ने औसत परिवार का अकार तक़रीबन 2 तक सीमित कर दिया ठीक इसी तरह समय इस नीरस पितृसत्तात्मक समाज का उपचार भी ढूंढ़ लेगा,यकीं रखे,वो दिन दूर नहीं है जब पितृसत्तात्मक समाज अपने नए अवतार मातृ-पितृसत्तात्मक समाज के रूप में दिखाई देगा।


Wednesday, January 9, 2013

सुर्ख वाला,सौज़ वाला भारतीय प्रजातंत्र में 2013 के टॉप फाईब शुरूआती झटके...


सुर्ख वाला,सौज़ वाला भारतीय प्रजातंत्र में 2013 के टॉप फाईब शुरूआती झटके...:-)
  1. जब कोई लड़का किसी लड़की को छेड़े या बलात्कार करे तो लडकी को गिडगिडा कर बलात्कारी को भाई बना लेना चाहिए,इससे लड़की की ज्यादा दुर्दशा नहीं होगी :- संत श्री श्री 100008 निराशा राम - बापू के लायक नही
  2. बिहारी यानी बलात्कारी :- माननीय श्री नाराज़- ठहाकारे
  3. पाकिस्तान के अनुसार हमारे दो जाँबाज जवानो की मृत्यु उनके हमले से नहीं वल्कि आत्महत्या है / वे निर्दोष है:- अमन की आशा लेकिन हाथ लगी निराशा,बंद करो ये सब तमाशा
  4. रेल किराये में करीब 20 प्रतिशत तक की वृद्धि की है। यात्री रेल किराया दस साल में पहली बार बढ़ोतरी की गई है। :- कहाँ गए रे स/ब 
  5. पेट्रोलियम वस्तुओं का दाम नहीं बढ़ाने से सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा,जिससे बजट पर दबाव बढ़ेगा, सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर खर्च करने के लिये संसाधन कम होंगे तथा तेल कंपनियों की स्थिति और खराब होगी। चरणवद्ध तरीके से मूल्य वृद्धि :-  नो गीव बट टेक सिंह- दिवालिया