Negative Attitude

Negative Attitude
Negative Attitude

Saturday, July 21, 2012

पुष्पा - मुझसे ये आंसू नहीं देखे जाते - आइ हेट टीअर्स

सुपरस्टार राजेश खन्ना अब पंचतत्व में विलीन हो चुके है.यह कौन भूल सकता है की राजेश खन्ना ने १९६९ से १९७१ के बीच लगातार १५ सुपरहिट फ़िल्म्स से हम तमाम हिन्दुस्तानियों को मनोरंजित किया था, जो अभी भी भारतीय फिल्म के इतिहास में एक अटूट रिकॉर्ड है.बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना कई वर्षो से अकेले रहा करते थे और इस अकेलेपन को अपने आप से छुपाने के लिए उन्होंने मदिरा को ही अपना हमदम मान अस्त होते शोहरत और ढलती जिंदगी से लड़ने का प्रयास किया परन्तु अंततः इस विषाद के आगे पराजित हो गए.आज उनका चौथा था.चौथा मतलब मृत्यु का चौथा दिन.इस दिन समाज और सगे संबंधी  मृत आत्मा के लिए प्रार्थना और श्रद्धांजलि अर्पित करते है, इससे पहले मृतक के रसोईघर में आग नहीं जलता है.खाद्य और आवश्यक समंग्रियाँ  दोस्तों या सगे सम्बन्धियों के घर से आते हैं.आज सुपरस्टार राजेश खन्ना के लिए भी मुंबई के एक पांच सितारा होटल में समाज,सगे संबंधीओं और बॉलीवुड के लगभग तमाम हस्तियों के समक्ष चौथा की रश्म अदा की गयी.सितारों के लिए सितारों का गम भी सितारों की तरह ही चमकीला होता है.सुपरस्टार राजेश खन्ना के सगे संबंधीओं और बॉलीवुड के लगभग तमाम हस्तियों के उनके मृत्योपरांत उमड़े अनायास प्यार एक रहस्मयी मानव समाज की जीती जागती उदहारण है. उनके गुमनामी और तड़प वाले दिनों में किसी ने उनको मरहम नहीं लगाया, किसी ने उनका हाल नहीं लिया, किसी ने उनका हौसला अफजाई नहीं किया.यहाँ तक की मीडिया ने भी नहीं.लेकिन उनकी मृत्यु के ठीक पश्चात शोक की लहर नहीं मानो भारतीय टीम एक बार और वर्ल्ड कप जीता हो.सारे टीवी चैनेल्स पर आलोचनाओ और बहस के दौर शुरू हो गए.हर किसी ने राजेश खन्ना के बीती जिंदगी पर आलोचना और बहस शुरू कर दिया.क्या किसी की मृत्यु में भी आलोचना की गुंजाईश हो सकती है? राजेश खन्ना के मृत्यु के दिन ही उनके जिंदगी के बारे में आलोचना,बहस श्रद्धांजलि नहीं वल्कि एक सुपरस्टार को अपमानित करना ही हुआ.लोगो ने यहाँ तक कह दिया की वो अपने बाद के वर्षों में खुद को बदल नहीं पाए. इस तरह की टिप्पणियाँ देने के लिए पहले निजी बनकर कुछ समय व्यतीत करना होता है अन्यथा इस तरह की टिप्पणियाँ वाणिज्य के आगे नतमस्तक हो एक मृतात्मा का अपमान के सामान है.मृत्यु अटल एवं सभी का चरम है और कम से कम इसे तो व्यंग्य,कटाक्ष से दूर रखना चाहिए.मृत्यु यानी नवजन्म का प्रवेशद्वार-इस जन्म और पुनर्जन्म के बीच का सेतुरूपान्तरण का अनिवार्य पथ.मृत्यु का उपलब्ध होना,नवजीवन का उपलब्ध होना है.यह तो हम सब जानते ही होंगे..या नहीं..?..किसी के चौथा में शिरकत कर प्यार,भावना प्रदर्शित करने वाले मृतात्मा की श्रद्धांजलि नहीं वल्कि ये मृत्यु का भय ही है जो उनके इस औपचारिकता को सुनिश्चित करता है...सुख के सब साथी, दुख में न कोय ! ... सुख में तो सभी साथ निभाते हैं, परन्तु दुख आते ही परछाई भी साथ छोड़ देती है, यह बात एक बार फिर आज एक सुपरस्टार राजेश खन्ना जैसे महान सख्सियत के जीवन और फिर मृत्यु को देखकर मिली... राजेश खन्ना के शरीर की मृत्यु हुई है सुपरस्टार राजेश खन्ना की नहीं.सुपरस्टार राजेश खन्ना हमेशा जीवित रहेंगे...ये जो मोहब्बत है....शुभ रात्रि..:-)

Saturday, July 14, 2012

साउन्ड्स ग्रेट व्हेन यू नो व्हाट इट मीन्स

जैसा की हम सब भली भांति अवगत है की मानव भाषा का मूल अभी तक अस्पष्ट है और शायद हमेशा के लिए अस्पष्ट ही रहेगा. आज दुनियाभर में लगभग ५००० भाषाएँ  बोली जाती है और इनमे से लगभग २५-३०% भाषाएँ  अकेले अफ्रीका में बोली जाती है. अलग अलग भाषाओँ को साझा शब्द या ध्वनियों या व्याकरण निर्माण के द्वारा एक दूसरे से जुड़े होने के कारण उनको अलग अलग समूहों में बांटा गया है.अल्फाज़,शब्द या वर्ड इन्ही भाषाओ के घटक संरचनाये हैं, इनके गठबंधन से ही वाक्य बनते है और फिर इनके ही अनुशाषित तरीके से मानकीकरण को पार्ट्स ऑफ़ स्पीच कहते है. हमारे देश में मुख्यतः दो समूहों की भाषाए बोली जाती है. एक इंडो-आर्यन भाषाएँ और दूसरा द्रविडियन भाषाएँ.सरकारी आंकड़ो के मुताबिक हमारे देश की कुल जनसँख्या का लगभग तीन हिस्सा इंडो-आर्यन भाषा बोलता है और एक हिस्सा द्रविडियन भाषा.परन्तु दुर्भाग्यवश हमारे देश में भाषाओ का भेदभाव जिसके परिणामस्वरूप प्रांतवाद और अंततः मानवीय भेदभाव सिर्फ इंडो-आर्यन लैंगुएज बोलने वाले समूह के बीच ही है.अब गौर करने वाली बात यह है की राजनीतिज्ञों द्वारा भाषाओ से इंसानों का वर्गीकरण लोकतांत्रिक व्यवस्थाओ के लिए निस्संदेह एक भद्दा कलंक है और स्पष्ट रूप से कहे तो यह हमारे देश के अन्दर भाषाओ पे राजनीती करने वाले लोकतांत्रिक संप्रभुता के विद्रोहियों का समूह विकसीत हो चुका है. और इसके प्रति सरकार का लचीला रवैया इसके स्तम्भ को निरंतर मजबूत कर रहा है. अगर इससे परे हो मानवीय जरूरतों और उनके विकास की ओर ध्यान न दिया गया तो वह दिन बहुत समीप है जब यह राजनितिक महामारी का रूप जरूर धारण करेगा जिसको नियंत्रण कर पाना असंभव सा होगा.राजनीतिज्ञ राज्यस्तरीय विकास की कमियां छुपाने के लिए अपने जनता,प्रान्त के लोगो को एक दुसरे के प्रति वैमनस्य फैलाकर कर गुमराह करते है. प्रवर्जन विकसित समाज का सूचक है ओंर अगर इसका भी राजनीतिकरण कर दिया जाए तो विकसित देश,विकसित समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती. ये तो बस गरीबी,बेरोजगारी जैसे राजनितिक मुद्दे बनकर ही रह जायेंगे और हर पांच वर्षो के बाद हम सब नई नई धुनों पे थिरका करेंगे.जीवन की वजूद ही भाषा है और वजूद ही प्रकृति है और हम प्रकृति के  बटवारे पे तुले  है.सच तो यह है की शब्द,अल्फाज और इसके साथ क्रीडा न जाने कितना आनंदित करती है और ठीक उतना ही विचलित भी. फिर भी हम इन वेशकीमती अल्फाजो को कितना नजर अंदाज़ करते है. पता है हम इंसानों ने ही ये लफ्ज एक दूसरे के साथ संवाद के लिए बनाये है जब दिक्कत होगी एक लकीर और खैंच देंगे. हमारे देश की अनगिनत भाषाए और एक दुसरे से विशिष्ट होने की कोशिश वाले अनगिनत शब्द ही मुख्य आरोपी है जिनके वजह से भारत की ३५ कड़ियाँ आज तक भरतीय होने के वजाय अपने प्रान्त से मुखातिब होने में ज्यादा गौरवान्वित होते है.एक भारतीय सिनेमा और गीत ही हमारे देश के ३५ कड़ियों को साथ लेकर चलने की कोशिश करते हैं.इसकी की विविधता इस बात के प्रमाण है जिसने कोलावेरी डी, एक द्रविडियन शब्द के साथ पुरे भारत को जोड़ दिया. वर्ना हम देवनागरी लिपि को ही ठीक से स्वीकार नहीं कर पा रहे है द्रविडियन शब्दों को कैसे करते. संगीत को देखिये ये कितना अद्भुत ज्ञान है जो सभी भाषाओ, शब्दों को अपने आगोश में किस तरह समेटते हुए एक मखमली हलचल बनकर कानो से चलकर मस्तिस्क को छूकर सीधे ह्रदय को लग जाती है.भारतीय सिनेमा और संगीत की रचनात्मकता वो चाहे किसी भी भाषाओं या शब्दों से बने हो ६०-७० वर्ष पुराने गानों को भी सुनने को मजबूर कर देती है जिनको आप, हम और सबलोग गोल्डेन इरा भी कहा करते है. संगीत की शुद्धता ही हमें उन लफ्जो को गौर करने पर मजबूर कर देती है. संगीत की सच्चाई और व्यावहारिकता ही इसके साथ आलंगित शब्दों,अल्फाजो को रूहानी बना देती है.आइये संगीत के कुछ पंक्तिया गुनगुना कर अपनी याद्दास्त ताज़ा करते है और समझने की कोशिश करते है की  संगीत के शहद की ये मधुमक्खियाँ जोडती है या तोडती है.....

शाम-ऐ-गम की क़सम आज गमगीं है हम
आ भी जा आ भी जा आज मेरे सनम
शाम-ऐ-गम की क़सम
दिल परेशान है रात वीरान है 


६० साल पुराने इस गीत के सारे अल्फाज़ उर्दू के है पर इसकी सच्चाई,भावनाएं पुरे देश को आज भी सुनने को विह्वल कर देती है.

चलते चलते
यूँही कोई मिल गया था
सरे राह चलते चलते
वहीँ थमके रह गयी है
मेरी रात ढलते ढलते 


यूँ तो 5० साल पूराने इस फिल्म का नाम पूरी तरह से एक उर्दू शब्द है पर इस गीत के ज्यादातर बोल हिंदी के है.हमारे दक्षिण भारत के कई मित्र आज भी इस गीत को सुनने को बेताब रहते है.ये तो संगीत के साथ गर्भवती हुए इन शब्दों की निश्छल दीवानगी है जो कई सीमाओं को एक कर देने का कूबत रखती है.

Shining in the shade in sun like a pearl up on the ocean
Come and feel me
Haan Feel me
Shining in the shade in sun like a pearl up on the ocean
Come and heal me
Comon Heal me


अब इस गीत को देखिये यह शब्द नहीं भाषाओ की क्रांति हिंगलिश है.तीन साल पुरानी मोडर्न युग के अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी फिल्म का ये गीत पश्चिमी सभ्यता वाली भाषा की रंगीनियत को प्रदर्शित करता है और साथ साथ आपको यह भी एहसास दिलाता है की प्रीत की अभिव्यक्ति किसी एक भाषा का मुलाजिम नहीं है.

पानी दा रंग वेख के
अंखियाँ जो हंजू रुल दे
माहिया न आया मेरा
रान्झाना न आया मेरा
आंखां दा नूर वेख के अंखियाँ जो हंजू रुल दे

  
अति महत्वकांछि विषय पे आधारित फिल्म के इस गीत के सारे अलफ़ाज़ गुरुमुखी लिपि के है पर आजकल यह पुरे देश का मेगाहिट सोंग है.शब्दों की समानता और उर्दू के अल्फाजो से सुसज्जित ये लिपि अनेकता में एकता करने को बेताब है.श्रावण का रंगीन महीना और झमाझम वारिश में भी हॉट है..

चढ़ी मुझे यारी तेरी ऐसी
जैसे दारु देसी
खट्टी मीठी बातें हैं नशे सी
जैसे दारु देसी 


दो दिन पहले रिलीज हुई कोकटेल फिल्म का ये गाना किसी कोकटेल से कम नहीं हिंदी के इन अल्फाजों को मद्रास के एक सज्जन ने अपना आवाज़ दिया है.लेकिन ये गीत पुरे देश में न पीनो वालो को भी मैखाने का रास्ता इख़्तियार  करा सकता है.सावधान!!!

मेरा कहना सिर्फ यही है की दुनिया की कोई भी भाषा इंसानों को जोड़ने के लिए बनी है न की तोड़ने के लिए.भाषाओ का परस्पर सम्मान ही इंसानियत का सम्मान है और एक दुसरे का सम्मान करना एक सभ्य समाज की संस्कृति जो हम सब हिन्दुस्तानी फक्र के साथ कहते भी है...हैव ए ग्रेट वीकेंड...:-)


Sunday, July 8, 2012

बर्थडे बॉय - पद्मश्री सौरव चांदिदास गांगुली


अजीब दास्ताँ है ये,कहाँ शुरू कहाँ ख़तम,ये मंजिलें है कौन सी,न वो समझ सके न हम.मैं किसी फिल्म के गीत की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं बात कर रहा हूँ क्रिकेट के दादा पद्मश्री सौरव चांदिदास गांगुली की क्योंकि क्रिकेट में गंगुलिकरण और भारतीय क्रिकेट की सफलता आज भी गीत का ये मुखड़ा जरूर गुनगुनाता होगा.आज इनका जन्मदिन है और इनके तजुर्बे से लबालब भरे जिंदगी में एक और वर्ष जुड़ने पर ढेर सारी शुभकामनाओ के साथ आज का यह लेख इनकी शान में समर्पित करता हूँ.याद है साल २००५ का वो दर्दनाक लम्हा जब BCCI की इंडियन टीम के तत्कालीन कोच ग्रेगोरी स्टीफेन चैपल ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ईमेल किया था और कहा था कि गांगुली शारीरिक और मानसिक रूप से "इंडियन टीम के नेतृत्व के लिए अयोग्य है  और उनका 'बांटो और राज करो" वाला व्यवहार टीम की क्षति कर रहा है.किसी भी संस्थान या व्यवस्था या समूह का कोच मतलब उस कुनबे का अनुभव में सर्वोच्च व्यक्ति.पता नहीं BCCI ने ग्रेगोरी स्टीफेन चैपल को किस नज़र से भारतीय क्रिकेट टीम का कोच नियुक्त किया था.आइये एक नज़र पद्मश्री सौरव चांदिदास गांगुली और गांगुलीकालीन इंडियन क्रिकेट टीम के कोच की तुलनात्मक अनुभव कुंडली पे डालते हैं.
पद्मश्री गांगुली ने ११३ टेस्ट मैच खेले है जबकि ग्रेग चैपल ने ८७  टेस्ट मैच मतलब पद्मश्री गांगुली के मुकाबले ग्रेग चैपल २३% कम मैच खेले है. एक दिवसीय मैचो की बात की जाए तो ये आपको और भी अचंभित कर देगी पद्म श्री गांगुली ने 311 एक दिवसीय मैच खेले है जबकि ग्रेग चैपल ने ७४ एक दिवसीय मैच मतलब पद्मश्री गांगुली ने  ग्रेग चैपल के  मुकाबले 400% ज्यादा मैच खेले है.कप्तानी में सफलता की ओर नजर डाले तो इसमें भी पद्म श्री गांगुली ग्रेग चैपल से ०६ % आगे है. अब बताइए ज्यादा अनुभवी कौन है -पद्मश्री गांगुली या ग्रेग चैपल? कम अनुभवी व्यक्ति अपने से ज्यादा अनुभवी को कैसे और क्या मार्गदर्शन कर सकता है. एक हवलदार एक थानाध्यक्ष को क्या अतिरिक्त ज्ञान दे सकता है? एक कम अनुभवी को अगर पॉवर मिल जाता है तो वो अपने आप को बहुत असुरक्षित महसूस करने लगता है और अपना अस्तित्व वरकरार रखने के लिए के लिए कुछ भी कर सकता है और ठीक वैसा ही ग्रेग चैपल ने अपनी नाकामी का सारा ठीकरा गांगुली के सर फोड़ कर किया.एक अवकाशप्राप्त व्यक्ति ने ३२ साल के उम्र में ही एक गांगुली को अवकाशप्राप्त घोषित कर दिया.देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित गांगुली को BCCI ने आज तक इज्जत से स्र्ख़सत भी न कर सकी.BCCI के मानव प्रवंधन का इससे अच्छा उदहारण और क्या हो सकता है? झूठी शान और गुटबाजी हम भारतीयों की सफलता की कुंजी है. झूठी शान और गुटबाजी जहाँ भी होगा वहां योग्य और योग्यता की इसी तरह अधिकृत हत्या होती रहेगी.पता नहीं BCCI को फिरंगो की दुलत्ती इतनी पसंद क्यों है ये भी उन राजनेताओं के नक्शेकदम पे ही चलता है जो विदेशो में ड्राई क्लीन हुए कपडे पहन कर भारत में गरीबी उन्मूलन की बात और फिर देशव्यापी जनांदोलन किया करते है.हमारी क्रिकेट की सफलता के लिए अपना जीवन नेव्छावर करने वाले कई हीरो ऐसे भी है जिनको क्रिकेट ने इनाम स्वरुप सिर्फ और सिर्फ लान्क्षण ही दिया है.भारत में क्रिकेट खेल की सर्वोच्च संस्था BCCI में राजनेताओ का क्या काम? एक राजनेता खेल में क्या योगदान कर सकता है? किसी भी खेल की संस्था में अगर कोई खेल में योगदान कर सकता है वो उसी खेल के वरिष्ठ खिलाडी कर सकते है न की राजनीती और उसके अनुयायी नेतागण.पद्मश्री गांगुली अब क्रिकेट की भारतीय नौटंकी मंडली से आज़ाद हो चुके है और उनके क्रिकेट कमेंटेटर रुपी नए अवतार में देखकर हमें अपार हर्ष होता है.कम से कम क्रिकेट की टीवी कमेंट्री में क्रिकेट से जुड़े लोग तो है.वैसे दोस्तों जब भी हमलोग क्रिकेट से जुडी सफलताओं का जिक्र करते होंगे तो उनमें पद्मश्री गांगुली के योगदान को जरूर याद करते होंगे...है ना !! एक बार और जन्म दिन के इस शुभकामनाओ के साथ आपसे विदा ले हूँ..अल्लाह हाफिज़..:-) बार बार दिन ऐ आये, बार बार दिल ऐ गाये,तू जिए हजारो साल मेरे दिल की है ऐ आरज़ू.Happy birthday to you! Happy birthday to you! Happy birthday Dear Ganguly! Happy birthday to you! ..

Saturday, July 7, 2012

सामाजिक प्राणी,सामंजस्य और सोसल नेटवर्किंग मीडिया ???

सामाजिक प्राणियों वाला समाज मुख्यतः सामंजस्य से चलता है, ध्यान रहे ऐसा मैं नहीं वल्कि इस धरातल के बहुत सारे समाज शास्त्र के अनुयायी कहा करते है.साल के लगभग हर दिन उत्सव मनाने वाला चिर प्राचीन दमित,विक्षिप्त  भारतीय समाज,समुदाय आज सोसल नेटवर्किंग मीडिया को सामंजस्य का न्याधार मान रखा है.शायद यह सामंजस्य के लिए सरल और आर्थिक रूप से पैसा न के बराबर खर्च होने के वजह से लोकप्रिय भी है.फेसबुक पे भावनाओ की अभिव्यक्ति,गुड मोर्निंग,गुड नाइट,हैप्पी बर्थडे,हैप्पी एनिवर्सरी इत्यादि और ज्ञान दान का 24x7 सिलसिला भारतीय सुसंस्कृत समाज को सामंजस्य के लिए  इससे सस्ता और कोई नहीं सा फ़ॉर्मूला सिद्ध हो गया है.शौर्यता और अतिविशिष्टता प्रदर्शित करने को आतुर हमारा समाज,तजुर्बात-ए-जिंदगी के मुताबिक फेसबुक के नुमाइंदगी वाली सामंजस्य की ये परिभाषा अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना मात्र जैसा ही है.जो समाज अपने जन्मदाता माँ ,बाप से सामंजस्य नहीं बिठा सकता शायद वैसे ही समाज को  सोसल होने के लिए मीडिया की जरूरत होती है.आंकड़ो को माने तो हमारे देश में पिछले दस वर्षो में वृद्धाश्रम की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है और यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है की हमारा सुसंस्कृत भारतीय समाज कितना सोसल है?God's Own Country से संबोधित किया जाने वाला राज्य केरल में सर्वाधिक लगभग १४० वृद्धाश्रम हैं.आइये एक नज़र निम्नलिखित राज्यवार अनुमानित वृद्धाश्रम आंकड़ो पे डालते है.

१/ केरल -
लगभग १४०
२/
कोलकाता - लगभग ३४
३/ हरयाणा -
लगभग २४
४/ उत्तर प्रदेश -
लगभग २२
५/ गुजरात -
लगभग १८
६/ पंजाब -
लगभग १६
७/ आंध्र प्रदेश -
लगभग १४
८ / महारास्ट्र -
लगभग १६(मुंबई-लगभग १०)
९/ तमिलनाडु -
लगभग १०
१०/ उत्तराँचल -लगभग १०
११/ हिमाचल प्रदेश -
लगभग ०७
१२/ कर्नाटक -
लगभग ०६
१३/ दिल्ली -
लगभग
०५

जैसा की  हम सभी जानते है विकसित होने के सारे मापदंडो पर
उपर्युक्त राज्य सरकारी आंकड़ो के गोल्ड क्लब में शुमार है फिर भी सामंजस्य न हो पाना सामाजिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है? अगर हम माँ, बाप के साथ सोसल नहीं हो सकते तो हम किसी के साथ और कभी भी सोसल नहीं हो सकते? सोसल शब्द को सोसल होकर सोचने की जरूरत है ना की फेसबुक बनकर ??? सरकार को इस बाबत कोसना, बेशर्मियत की कोई तो हद होती है..शायद अनगिनत सरकारी वित्तपोषित एनजीओ द्वारा वृद्धाश्रम का फलता फूलता मूर्ख व्यावसायीकरण फेसबुक को इंडिया ओल्डएज बुक,एक अतिरिक्त सोसल नेटवर्किंग प्लेटफोर्म बनाने को प्रेरित जरूर करनी चाहिए और फिर हम इसे टेक्नोलोजी युग  की बानगी मानकर फुले नहीं समायेंगे.

क्या सोसल होने के लिए मीडिया की जरूरत है?फेसबुक इस्तेमाल कीजिये पर सामंजस्य एवं सोसल शब्द सिर्फ इसके बिजनेस मॉडल तक ही सिमित रखे वर्ना सोसल और मनोरंजन दोनो का अर्थ एक सा ज्ञात होने लगेगा.सामाजिक प्राणियों द्वारा दैवीय कण/परमात्मा के समीप पहुचने का दावे करने वाले इस ऐतिहासिक युग में भी सोसल होने के लिए मीडिया की जरूरत आन पड़ी तो पता नहीं जीवन में नेटवर्किंग मीडिया की और कहाँ कहाँ जरूरत पड़ेगी..:-)